________________
७६]
[शासवार्ताः स्त० १०/१६ वयं तु घूमः-गवये गोसादृश्यज्ञान न प्रत्यक्षम् , अस्पष्टत्वात् , 'उपमिनोमि' इति विलक्षणानुभवाच्च । किन्तु, प्रत्यभिज्ञाविशेष एव, उपमितित्वस्य प्रत्यभिज्ञात्वव्याप्यत्वात्। गक्ये गोसादृश्यज्ञाने गवि गवयसादृश्यपरिच्छेदोऽपि लिङ्गादिप्रतिसंधानानपेक्षत्वाद् नानुमानिकः, किन्तु विचित्रक्षयोपशमाधीनस्तस्यैव समानातिवधपर्यायग्रहपरिणामः । संज्ञा-संज्ञिसंबन्धमतातिरपीथमे बोपपादनीया, प्रतीतगवयपदबाच्यत्वोपलक्षणताकस्य गोसादृश्यस्य ग्रहेऽतिदेशवाक्यार्थस्मरणे च सति गवयं प्रति व्यापारित लोचने तथाप्रत्यभिज्ञावरण क्षयोपशमात् 'अयं गवयपदप्रतिनिमित्तवान् ' इति परिच्छेदोपपत्तेः । अन्यथा 'कररेखाविशेषवान् शतवर्षजीवी' इति बाक्याथै प्रतिसंदधतः क्वचित् पुरुषे कररेखाबिशेषोपलग्भे तत्र 'अयं शतबर्षजीवी' इत्यनुसंथानमपि प्रमान्तर स्यात्, इति तत्रापि प्रमाणान्तरमन्वेषणीयं देवानां पियेण । विषयक अप्रामाण्य ज्ञानदशा में साधम्य विषयक अप्रामाण्य ज्ञान न रहने पर भी साधयान से, एवं माधविषयक अप्रामाण्यज्ञान दशा में वैधम्यविषयकप्रामाण्यज्ञान न रहने पर भी वैधम्यंज्ञान से, उपमिति न हो सकेगी। क्योंकि, उक्त स्थल में उक्त दोनों अप्रामाण्यशानामावों से विशिष्ट पदवाच्यत्य का धर्मितावच्छेदकप्रकारक ज्ञान नहीं है। फलतः कारणतावच्छेदककोटि में अप्रामाण्यमानाभाव के निवेश की अनुपपति में अनुगत कारणता का समर्थन नहीं हो सकता।
[उपमिति का प्रत्यभिज्ञा में अन्तर्भाव-व्याख्याकार] प्रस्तुत विषय में जनदर्शन के सिद्धान्त पक्ष का अवलम्बन करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि गवय में जो गोमादृश्य का ज्ञान होता है वह प्रत्यक्षात्मक नहीं है, क्योंकि वह अस्पष्ट है जब कि प्रत्यक्षान्मक ज्ञान स्पष्ट ही होता है। दूसरी बात यह है कि उस शान का 'उपमिनोमि-गवयं गया उपमिनामि' इस प्रकार उपमितित्वरूप से अनुभव होता है । यदि यह प्रत्यक्षरूप हो तो इस अनुभव की उपपत्ति नहीं हो सकती । अत: उक्तनान प्रत्यभिज्ञा का ही एक भेद है, उमितित्व प्रत्यभिज्ञात्य का व्याप्यधर्म है।
पर्व गवय में गोसादृश्य का ज्ञान होने के अनन्तर जो गो में गवयसादृश्य का निभय होता है, वह भी लिन आदि के ज्ञान की अपेक्षा किये विना ही उत्पन्न होने के कारण आनुमानिक नहीं है । विशेष्यभूत गो के साथ इन्द्रिय का मनिकर्प न होने से उस में प्रत्यक्षामकत्व की भी कल्पना नहीं हो सकती । अतः ग्रह मानना उचित है कि गययनिष्ठ गोसादृश्य एवं गोनिष्ठगययसादृश्य दोनों समानवित्ति-समानसामग्री से वेद्य गयय और गो के पर्याय हैं और उन का ज्ञान गवय और गो के उन पर्यायों का हो ग्रहण परिणाम है जो विचित्र क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसलिये गषय में गोसादृश्यज्ञान के बाद होनेवाला गो में गवयमादृश्य का निश्चय भी प्रत्यभिशा का ही भेद है।
[प्रत्यभिज्ञाभेद न मानने पर नये प्रमाण की आपति] नयायिकों के मत में उपमान से जो संक्षा और संझी के सम्बन्ध की प्रतीति मानी जाती है उस की भी उपपत्ति इसी प्रकार हो सकती है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि गोसादृश्य से उपलक्षित पशु में गवयपदपाध्यस्व की प्रतीति होने के बाद गोसादृश्य का ज्ञान पर्व अतिदेशवाक्यार्थ का स्मरण होने पर गवय के साथ चश्च के सन्निकर्ष से 'गोसरशोऽयं गवयास प्रत्यभिज्ञा के आचरण के क्षयोपशम से 'अयं गवयपदप्रवृत्तिनिमितवान् । इस प्रकार का निमय हो जाता