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स्या क० टोका एवं हिन्वीविवेचन ]
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न च तथाप्रवृत्तौ तच्छानिवृत्तिः, तस्यां च संपमायां प्रतिबन्धकाभावसाम्राज्यात् तथा प्रवृत्तिरित्यन्योन्याश्रय इति शङ्कनीयम् , पूर्वप्रवृत्तेः कोट्यस्मरणादिसिद्धसंशयाभावादेवोपपत्तेः, प्रवृत्तेरिव प्रवर्तमानजातीयत्वस्याप्यासन्नसिद्धिकत्वव्याप्यन्वाद् वा ।
वस्तुतः शमादिलिङ्गैरपुनबन्धकत्यरूपयोग्यतानिश्चयाद् न दोषः, अपुनन्धकतानियतभवव्यवधानज्ञानस्याऽप्रतिबंधकत्यात , तद्भाव स्थितिहेतुदुरितानां सत्प्रवृत्तिनाश्यत्वेन प्रत्युत नाशार्थिप्रवृत्तौ नाश्यनिश्चयीभृयानुगुणत्वात अनतिशयितशमादिना प्रत्युत्तरमनिशयितशमादिसंपत्तश्च नान्योन्याश्रयः । यत्तु 'शमादावपि संसारित्वेनैव स्वरूपयोग्य स्वाद मुक्तावपि संसारिस्वेन तत्त्वम्' इति गङ्गेशाकूतम् , तद् न पूतम् , नित्यज्ञानादिमद्भिन्नत्वरूपसंसारित्वापेक्षया भव्यत्वस्यैव लघूभृनस्य पौचिस्मा , समुस्मिनिरासाच ।
हमारी संसारस्थिति सम्भवतः अभी अत्यधिक दीर्घकाल तक रहने वाली है', मोक्षाऽयोग्यत्व की ऐसी डर से भी मोक्षोपाय के अनुष्ठान में प्रवृत्ति का प्रतिरोध नहीं हो सकता, क्योंकि विषयसुख के प्रति बैराग्य और यथाशक्ति प्रवृत्ति से सिद्धि को निकटता का निश्चय हो जाता है । सिद्धि की निकटता उक्त अयोग्यता के अभाव का व्याप्य है प्रतः सिद्धि की निकटता का निश्रय होने पर उक्त अयोग्यता के अभाव का निश्चय हो जाने से उक्त अयोग्यता की शङ्का ही नहीं हो सकती। विषयवैराग्य और यथाशक्ति प्रवृत्ति से सिद्धि को निकटता का निश्चय निर्वाधरूप से सम्पन्न हो सकता है, क्योंकि शास्त्र में उक्त दोनों को सिद्धि पद को निकटता का श्याप्य कहा गया है । इस बात में 'श्रुतफेवली का यह वचन साक्षी है कि जिस पुरुष को सिद्धि निकटकाल में होने वाली होती है उसका लक्षण यह होता है कि वह विषयसुख में आसक्त नहीं होता और अपनी शक्ति के अनुसार वह उधम किये बिना नहीं रहता। विषयवैराग्य व तदनुरूप प्रवृत्ति इन दोनों से सिद्धि की योग्यता निश्चित हो जाती है।
यदि यह शङ्का की जाय कि-'शुभ कर्मों में यथाशक्ति प्रवृत्ति होने पर प्रयोग्यत्व शङ्का की निवतियोगी और अयोग्यस्य श डा को नियत्ति होने पर प्रतिबन्धकामाद के सम्रिधान से । प्रवृत्ति होगी अत: उक्त समाधान अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त है।'-तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि उक्त अयोग्यता और उसका प्रभाव इस कोटिद्वय के स्मरणरूप कारण के अभाव आदि से अयोग्यत्व संशय की उत्पत्ति न होने से संशय के पूर्व प्रवृत्ति के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे प्रवृति पासप्रसिद्धिकत्व का व्याप्य है उसीप्रकार प्रवर्तमानजातीयत्व भी प्रासप्रसिद्धिकत्व का व्याप्य है, अत: प्रवृत्ति न होने पर भी प्रवर्तमान अन्य पुरुष के सादृश्य निश्चय से अयोग्यत्व शङ्का की निवृत्ति होकर शुभकर्म में अपनी प्रवृति हो सकती है। इस समाधान में अन्योन्याश्रय की सम्भावना न होने से यह समाधान नि:शंक ग्राह्य है।
[भवस्थितिकारक दुरित का ज्ञान उसके नाश में सहायक | सस्य लो यह है कि जिस पुरुष में शम आदि का प्रादुर्भाव होता है उसमें शम यादि सम्यक्त्व १. श्रुतकेवली-श्री धर्मदासगणिमहाराज।