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स्या०क • टीका एवं हिन्दी विवेचन )
से दोनों में ग्राहकाकार पार ग्राह्याफार में भेद मानना प्रायश्यक है।"-तो यह कयन एकमात्र उनकी चिरप्ररुद बासना का ही परिणाम है क्योकि जब मोलाकार और जानाकार में ग्राह्यगाहकभाव हो असिद्ध है तब ग्राहकताशक्ति और ग्राह्यताशक्ति को कल्पना ही नहीं हो सकती, क्योंकि शक्ति कार्यानुमेय होती है। अतः ग्रहण करना और गहीत होना इस प्रकार कार्यभेद को सिद्धि के विना ग्रहण करने की और गृहीत होने की विभिन्न शक्ति का अनुमान नहीं हो सकता। इसलिये सारे विचारों का निष्कर्ष इस स्वभावहेतुक अनुमान में फलित होता है कि 'जो अबभासित होता है वह ज्ञानात्मक होता है जैसे सुखादि आन्तररस्तु। नीलादि प्रवभासित होता है अतः वह भी ज्ञानात्मक ही है। इस प्रनुमान में सुखादि इस अभिप्राय से दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त हुआ है कि जैसे ज्ञान आन्तर धम्न है ऐसे सुख यो आन्दररहनों से कोई भी बहिरिन्द्रिय से गृहीत नहीं होता। प्रतः दोनों को एकजातीय मानने में कोई बाधा नहीं है। अथवा वह दृष्टान्तरूप में उस मत से उपन्यस्त है जिस मत में ज्ञान-सुखादि एक ही अन्तःकरण के परिणाम होने से परिणामी द्वारा अभिन्न होते हैं। ___कथं तर्हि 'भूतले घटः' इति प्रतीतिः, न तु 'भृतले न घटज्ञानवत' इतिवद् 'भूतलं न घटवत' इति ! कथं वा 'अहं घटज्ञानान' इतिवत् 'अहं घटवान' इति न प्रतीतिः ?" इति चेत् ?, पृच्छतद् नियताधाराधेयभावकल्पनाबीजम् । न हि परेणाप्याधाराधेयभावो वास्तवो वस्तुं शक्यते, संयोगमात्रस्य तत्वे कुण्ड-बदस्योस्तद्विषययस्य विनिगन्तुमशक्यत्वात्, तिर्यसंयुक्तयोद्धयोस्तदव्यवहाराच्च । न च बदरादिप्रतियोगिकत्वविशिष्टसंयोगादिरेव बदराद्याधास्ता, क्षणभङ्गापच्या रिशिष्टस्यानिरिक्तस्यानभ्युपगमात् , प्रतियोगित्वाद्यविवेचनाय । न च कुण्डादिस्वरूपैव बदराद्याधारसा, तस्वरूपस्य साधारणत्वाद् बदरं प्रतीव करभं प्रत्यप्यविशेषात् । तस्माद् भूतलादी घटायाधारताप्रतीतिरविद्याविशेषादेव नियतेति प्रतिपत्तव्यम् ।
एतेन 'अर्थाभावेऽन्तहिविभाग एव न स्यात्' इति निरस्तम्, भिन्नदेशसंबन्धित्वेन तदसंभवेऽपि विश्वरूपभेदेन तत्संभकात, अन्यथा स्वप्नादौ स्थादिज्ञाने बहिज्ञानत्वं न स्यात् । एतेन चाहमिदमाकार भेदोऽपि व्याख्यातः स्वरूयतस्तद्देदाद , 'इदं नीलं' इत्यत्रेदमाकार-नीलाकारयोदोषादेवकज्ञानत्वाभिमानात् । पहिर्नीलादिस्वरूपमिदंत्वं स्वनुपयन्नम, असत्यप्यर्थे दोपवशात् 'इदम्' इति प्रतीतेः । 'इदं नीलम्' इत्यादिसह प्रयोगानुपपत्तेश्च' 'घटो घटः' इत्यादिवदिति दिग् ॥१०॥
[ आधारता की प्रतीति अविद्यामूलक ] जय और ज्ञान में ऐक्य मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि ज्ञेय और ज्ञान अभिन्न है तो क्यों "भूतल में घट है' यह प्रतीति होती है ? और 'भूतल में घटज्ञान नहीं है। इस प्रकार 'भूतल में घट नहीं है' यह प्रतीति नहीं होती? और क्यों 'मुझ में घटशान है' इस प्रतीति के समान मुझ में घट है यह प्रतीति नहीं होतो ?" -तो बौज को ओर से इसका यह उत्तर है कि इसका कारण नियत आधारआधेयभाव की कल्पना है। इस विषय में कुछ भी पुखना हो तो उक्त कल्पना के कारण को