Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 206
________________ स्या... टीका एवं हिन्दी विवेचन ] भवान तदा सा-गृह्यमाणः क्षणः, अपरेण प्रारगृहीतेन क्षणेन, तुल्यः सदृशः । 'इति' इतिशेषः कुसो गतिः कथं परिच्छित्तिः १-उपायाभावाद् न कथञ्चिदित्यर्थः ।।४२॥ [भेदग्रह न होने पर भी सादृश्यत्रह शक्य है-चौद्ध आशंका ] उक्त आक्षेप के उत्तर में बौद्धों का यह कहना है कि सदृश का निश्चय नियम से प्रस्तुतक्षणविषयक होता ही है । प्रर्थात् उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के सादृश्य का ज्ञान, उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के भेद और पूर्वक्षरणवृत्तिधर्म का ग्राहक यदि माना जाय तो भेव के विशेषणरूप में पूर्वक्षण का भी ग्राहक मानना ही पड़े पडेगा किन्त वह यक्तिसडत नहीं हो सकता. क्योंकि उक्तज्ञान उत्तरक्षण में होता है और उस क्षण में भेद के पूर्वक्षणरूप प्रतियोगी का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि उसक्षण में पूर्वक्षण अविद्यमान है । तथापि सदशग्रह के विषयभूत उत्तरक्षण में पूर्वक्षण का मेद वस्तुतः विद्यमान होता है । इस प्रकार वस्तुतः तद्भिन्न में तदभेद को ग्रहण न करने वाला भी 'तनिष्ठधर्मग्रह रूप सदृशग्रह तन्ना. शग्रह में शक्य है और वही प्रतिबन्धक दोष होता है । तन्नाशग्रह के प्रतिबन्ध के लिये सदृशत्व के पूर्णस्वरूप का यानी मेवघटित ज्ञान अपेक्षित नहीं होता । [शुक्ति में रजतसादृश्य ज्ञान भेदज्ञानमूलक नहीं होता ] तथा, यह कल्पना चौद्धों की कोई अपूर्व कल्पना नहीं है किन्तु यह स्थिरवादी को भी मान्य है । जैसे, शुक्ति में रजत सादृश्य का ज्ञान शुक्ति में रजतत्वभ्रम का जनक होता है। किन्तु वह ज्ञान रजतभेद का विषय न करके रजतयत्तिचाकचिवयरूप धर्म का हो ग्रहण करता है। क्योंकि यदि उस ज्ञान में शुक्ति में रजतभेद का मो भान माना जायेगा तो उसके अनन्तर शुक्ति में रजतत्वभ्रम ही न हो सकेगा क्योंकि रजतभेदज्ञान रजतत्वज्ञान का विरोधी होता है। अतः जैसे रजत का भेव स्वरूपतः तथा र त्तिचाकविषयधर्मज्ञानतः, रजतत्वभ्रम का जनक होता है उसी प्रकार उत्तरक्षण में पूर्व क्षण का भेद स्वरूपतः, तथा पूर्वक्षणवृत्तिधर्म ज्ञानतः, पूर्वक्षण के नाशग्रह का प्रतिबन्धक हो सकता है । [ बौद्ध मत में अन्त में भी नाशदर्शन की अनुपपत्ति ] बौद्ध को उपरोक्त प्राशंका के समाधान में व्याख्याकार का यह सूचन है कि-शुक्ति में रजतनिष्ठ चाकचिक्यादि धर्म के विशिष्टज्ञान से हो शुक्ति में रजतत्यभ्रम की उत्पत्ति होती है, किन्तु प्रकृत में, पूर्वक्षण के सदृश उत्तरक्षण का दर्शन निर्विकल्प यानी विशिष्टाऽविषयक होने से असन्तुल्य होता है, इसलिये यह नाशग्रह का विरोधी नहीं हो सकता क्योंकि विशिष्टाऽविषयक प्रसत्तुल्यज्ञान को यदि नाशग्रह का विरोधी माना जायगा तो अन्तिमघरक्षण के उत्तरक्षण में जो विसहशदर्शन होता है यह भी विशिष्टाऽविषयक होने से असत्तुल्य होते हुये भी नाशग्रह का विरोधी हो जायगा। इस प्रकार विसदृशक्षणदर्शन में भी नाशग्रह के विरोध का अतिप्रसङ्ग होने से अन्त में भी नाशदर्शन की अनुत्पत्ति होगी। [सादृश्यग्रह दुःशक्य होने से बौद्ध कथन अनुचित ] यदि बौद्ध की ओर से किसी प्रकार सहशदर्शन को नाशग्रहविरोधिता और विसशदर्शन में नाशग्रह प्रविरोध का उपपावन किया जाय अर्थात यह कहा जाय कि सहशवर्शन विशिष्टाविषयक होने से अनुभवारूह न होने के कारण असत्तुल्य होने पर भी वस्तुगत्या सशविषयक होने से सादृश्य के प्रतियोगीक्षण के मास ग्रह का प्रतिबन्धक होता है, किन्तु विसदृशक्षण का दर्शन विशिष्ट विषयक

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