________________ 216 [शास्त्रबार्ता० स्त०६ श्लो०६३ यह भी विचारणीय है कि जब नीलादि अर्थ और अश्वशृंगादि समानरूप से असत है तो उन में नीलादि का स्फुरण हो और अश्वशृंगादि का न हो इसका कोई उचित कारण नहीं है। दूसरी रात यह है-यदि विश्व केवल संविद्रूप यानी जानमात्रात्मक है तो निश्चितरूप से वह निधर्मक है, प्रतः उस में क्षणिकत्व धर्म बताना भी प्रयुक्त होगा। इसलिये स्वच्छ संवितमात्र की ही परमार्थ सत्ता है और वह भी क्षणिक है यह बौखों का केवल वासनामात्र है, उसमें कोई युक्ति अथवा प्रमाण नहीं है। अस: उचित यह है कि लोकानुभव के अनुसार वस्तु एकानेकात्मक है-इस सिद्धान्त पर ही श्रद्धा करनी चाहिये / क्योंकि एक वस्तु में एकत्व अनेकत्वादि के विरोध का निराकरण किया जा चुका है और आगे भी किया जाने वाला है। व्याख्याकार ने माध्यमिक के साथ अब तक की चर्चा का यह कहते हुये उपसंहार किया है कि पता ने प्रेमिका के सपा यमिक रित्त को पूर्णरूप से अपने स्वाधीन कर लिया हैवह इसकी पकड से निकल नहीं पाता। अतः माध्यमिक शून्य हृदय हो जाने से विद्वानों के साथ विचारगोष्ठी में [ उसके मुंह पर ] कोई प्रसन्नता नहीं दीखती। खेद है कि माध्यमिक ने सब [=सज्जन] होते हये भी मुग्धतावश मध्यमासंवित का समाश्रयण क्यों किया है और सुप्रसिद्ध चित्रस्वरूप उसमा संविद् को उपलब्ध न कर सकने के कारण हताश और पीडित क्यों नहीं होता?॥६२॥ अस्य विषय विभागामिधित्सयाहएवं च शन्यवादोऽपि सछिनेयानुगुण्यतः। अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना॥६३ एवं ष-उक्तरीत्याऽघटमानत्वे चेत्यर्थः, शून्यवादोऽपि, तछिनेयानुगुण्यतः शून्यताविपयविभागावधारणप्रवणशिष्यहितानुरोधात् , तत्त्ववेदिना-बुद्धन, अभिप्रायतः तत्प्रयोजनाभिप्रायान उक्तः, न तु तत्वाभिधित्सया, इति लक्ष्यते संभाव्यते / विना तूपकारक कारणं द्रव्यमृषाभाषित्वे बुद्धस्यानासत्यप्रसङ्गादिति // 6 // पूर्णा सुगतसुतमतवार्ता / शून्यवाद जब उक्त रीति से उपपन्न नहीं होता तो यही मानना उचित होगा कि तत्त्वदर्शी बुद्ध ने शून्यता के विषविभाग अर्थात्-शून्यवाद के विषयविभाग-वास्तवाभिप्राय को समझने में कुशल शिष्यों के हित के विचार से शुन्यवाद का इस तात्पर्य से उपदेश दिया है कि जिस से वे सांसारिक विषयों में आसक्त न हो / शून्यता की देशना में निश्चय ही उनका यही तात्पर्य सम्भव प्रतीत होता है, न कि 'शून्यता ही वस्तुतत्त्व है' इस प्रतिपादन के अभिप्राय से, क्योंकि लोककल्याण की भावना के विना द्रव्याऽसत्य का वक्तृत्व मानने पर उन में अनाप्तस्व की प्रापति हो सकती है // 63 // _ 'यस्यासन' यह श्लोक और उसका अर्थ पूर्वस्तबकवत् यहां समझ लेना / तदुपरांत एक श्लोक इस स्तबक की समाप्ति में अधिक उपलब्ध होता है जो बहुत सुन्दर है श्रमो ममोच्चैरियता कृतार्थः सन्तोत्र संतोषभृतो यदस्मात् / खलैः किमस्मिन , भ्रमरस्य भोग्यं सौभाग्यमन्जस्य न वायसम्य / / भाषार्थ -हमारे इस ग्रन्थ को देखकर सज्जनवृद प्रसन्न हुए हैं, इतने से हो मेरा परिश्रम सफल है। हां, दुष्टपुरुषों का मुझे क्या प्रयोजन ! अरविंद के भोग का सौभाग्य मधुकर का हो होता है, कौआ का कभी नहीं होता। स्तवक ६-समास