Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 213
________________ १९८ [शास्त्रवार्ता० स्त०६ श्लो०-५० अर्थ में क्षणिकत्वसाधक परिशेषानुमान सम्भव नहीं हो सकता। कारण, नित्य में अर्थक्रियाकारित्व के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि युक्तिपूर्वक विचार करने पर नित्य का ही ज्ञान नहाँ उपपन्न हो सकता। जब नित्य ज्ञान नहीं होगा तब उसमें अर्थक्रियाकारित्वाभावका भी ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि अभावज्ञान में प्रधिकरणज्ञान की अपेक्षा होती है। नित्य का ज्ञान क्यों नहीं हो सकता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यतः सभी ज्ञान समानरूप से क्षणिक होता है। अतः किसी भी जान से भिन्नकालिक अनेक क्षणों का ज्ञान न हो सकने से बहुक्षणस्थायित्वरूप नित्यत्व का ज्ञान क्षणिकवाद में असम्भव है ॥ ४९ ।। ५० वीं कारिका में इस वस्तुस्थिति का प्रतिपादन किया गया है कि स्थायीवस्तु में अर्थक्रियाकारित्व का अभाव भी नहीं है । न चार्थक्रियाऽभावोऽप्यक्षणिके, इति वस्तुस्थितिमाहमूलम्-तथाचित्रस्वभावत्वान्न चार्थस्य न यज्यते । ___ अर्थक्रिया ननु न्यायाक्रमाक्रमविभावनी ॥५०॥ तथाचित्रस्वभावत्वात् क्रमवत्परिणामानुविद्धाक्रमवदद्रव्यरूपत्वात् , न चार्थस्य न युज्यतेऽथक्रिया-किन्तु युज्यते, ननुनिश्चितम् न्यायात्-अनुभवसहितात तर्कात् । कीदृशी? इत्याह-'क्रमाक्रमविभावनी-युगपदयुगपदुत्पत्तिका सुखदुःखज्ञानजननजलाद्यानयनादिरूपा । तत्र च काचिदम्मदादिसंवेद्या, अन्यथा चानाशी । तेन न येल घटेन कदापि जलानयनादि न कृतं तस्यार्थक्रियाकारित्वाभावादसत्तवम् , अन्ततम्तयासिद्धनानशेयत्यादिपर्यायरूपाया अप्यर्थक्रियायास्नेज करणादिति द्रष्टच्यम् ।। ५० ॥ इतरनतो नोड्डयनं विधार्नु पक्षी समर्थः सुगतान्मजोऽयम् । विमृधरस्तार्किकतकशक्त्या यतो विलूनः क्षणिकत्वपक्षः ॥१॥ निरीक्ष्य साक्षादवलम्ब्यमानं पर विशाणं क्षणिकत्वपक्षम् ।। म्यादाइविद्यामालम्बनं भोः श्रयन्तु विज्ञाः ! सुदृढ़ हिताय ||२|| [नित्य वस्तु में अर्थक्रिया का असंभा नहीं है । अर्थ चित्रस्वभाव होता है अर्थात क्रमिक परिणामों से युक्त अक्रमिक द्रव्यरूप होता है । तात्पर्य, अर्थ में दो अंश होते है, एक स्थायो जिसे द्रव्यशब्द से अभिहित किया जाता है और दूसरा क्रमिक परिणाम जो अस्थिर-क्षणिक होता है । इसलिये उप्स में अर्थक्रियाकारित्व का होना युक्तिविरुद्ध नहीं है, किन्तु युक्तिसंगत है । इसका हेतु-अर्थक्रिया, न्याय-अनुभवसहिततर्क से कम और अक्रम से होने वाली क्रियाओं को समष्टिरूप में, सिद्ध होती है। कहने का आशय यह है कि अर्थ से दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं । कुछ युगपद् =एकसाथ होती हैं और कुछ प्रयुगपद्=कम से होती है । जैसे घटरूप १. प्रत्यन्तरे 'भाविनी'।

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