Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 217
________________ [ शास्त्रवाता. स्त० ६ श्लो० ५५ असत्त्वे खरंविषाणवदुत्पाद-नाशाऽयोगात्, उभयस्वभावत्वे च विरोधात् । तृतीये चोभयदोषानुषङ्गात्, “प्रत्येकं यो भवेद् दोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इत्युक्तत्वात् । चतुर्थे चानभ्युपगमात् । तदुक्तम् "न खतो नापि परतोन द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः । उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन' ॥१॥ इति ॥५५॥ [नित्य पदार्थ में क्रमाऽक्रम से अर्थक्रियानुयपत्ति-शून्यवादी ] क्रम और अकम दोनों ही प्रकार से नित्य में अर्थजनकता का बाध होने से वस्तु को नित्य नहीं माना जा सकता । आशय यह है कि वस्तु को कम से विज्ञान आदि कार्यों का जनक मानने पर भेद को प्रसक्ति होगी अर्थात जो वस्तु जिस कार्य को पहले नहीं उत्पन्न करती यह बाद में भी उसे नहीं उत्पन्न कर सकती, क्योंकि यदि उस में बाद में उत्पन्न होने वाले कार्य के प्रति सामर्थ्य होगा तो प्रथमोत्सन्न कार्य के साथ ही उसे उस कार्य को भी उत्पन्न करना चाहिये । अत: यह मानना आवश्यक होगा कि में उपर होनी चाले कार्य जनक और पूर्व में उत्पन्न होने वाले कार्य के जनक में भेद है। यदि वस्तु को अक्रम से अपने कार्यों का जनक माना जायगा तो एक ही काल में समस्त कार्य को उत्पत्ति का अतिप्रसल होगा। प्रतः नित्य में किसी भी प्रकार अर्थक्रिया को जनकता सम्भब न होने से वस्तु को नित्य मानना प्रयुक्त है । _ [ उत्पाद-व्यय की असिद्धि से अनित्यता भंग ] इसी प्रकार वस्तु को प्रनित्य मानना मो युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि उसका उत्पाद और विनाश प्रसिद्ध है। यहां उत्पाद-विनाश के सम्बन्ध में चार पक्ष को कल्पना हो सकती है जैसे कि उत्पत्ति और विनाश (१) स्वतः होते हैं अथवा (२) अन्य से होते हैं अथवा (३) स्व और अन्य दोनों से होते हैं कि वा (४) विना निमित्त के ही होते हैं ? (1) इन में प्रथमपक्ष मानने पर स्वतः होने वाले उत्साद और विनाश में किसी देशकालादि कारण की अपेक्षा न होने से देशविशेष और कालविशेष में हो उन के होने का नियम न सिद्ध हो सकेगा। (२) दूसरे परतः पक्ष में उत्पन्न होने वाला कार्य सत् है ? या असत् ? कि बा सत्र-असत उभयात्मक ? यह तीन विकल्प उपस्थित होते है। (१) यदि कार्य को सत् माना जायगा तो जैसे प्रथमतः विद्यमान होने से उस समय कार्य को उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार परतः = यानी पर प्रयोग के बाद भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अथवा यदि कार्य प्रथमतः विद्यमान रहेगा तो उसकी कारणाधीन उत्पत्ति मानना उचित नहीं हो सकता क्योंकि कार्य के सत होने पर कारण का उत्पादनव्यापार निरर्थक होगा क्योंकि असव को सन बनाने में ही कारणव्यापार की सार्थकता मानी जाती है, किन्तु इस पक्ष में कार्य पहले से ही सत् है । (२) यदि कार्य को असत् माना जायगा तो जैसे खरविषाण का उत्पाद और विनाश नहीं होता उसी प्रकार कार्य का भी उत्पाद और विनाश नहीं १. नागार्जुनविरचिते माध्यमिककारिकानन्थे प्रत्ययपरीक्षाप्रकरणे श्लो १ ।

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