Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 215
________________ २०० [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ लो० ५२-५३ mas वह मध्याह्न में नहीं रह जाती और जो मध्याह्न में उपलब्ध होतो है वह रात्रि में नष्ट हो जाती है - ऐसा लोक में प्रत्येक पदार्थ के विषय में देखा जाता है अतः जगत् के पदार्थ अतिश्य हैं ।। ५१ ।। ५२ वीं कारिका में 'विज्ञानमात्र ही सत्य है उस से भिन्न कोई भी वस्तु सत्य नहीं है' इस aaiपदेश के तटस्थसम्मत तात्पर्य का प्रतिपादन किया गया है विज्ञानवादतात्पर्यविषयप्रतिपादनायाह मूलम् — विज्ञानमात्रमध्येवं बाह्यसङ्गनिवृत्तये । विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥ ५२ ॥ एवं क्षणिकत्ववत् विज्ञानमात्रमपि ज्ञानातिरिक्तस्था लीकत्वज्ञाने तन्मः त्रप्रतिबन्धेन बाह्यसङ्गनिवृत्तये धन-धान्यादि वाह्यार्थपरिषङ्गपरित्यागाय, सामान्यतो विनेयानाश्रित्योक्तम् । विशेषविषयमाह-यदा: अर्वनः ज्ञानयोग, कविद् विनेयान तिनिपुणानाश्रित्य तद्देशना --ज्ञानवाददेशना ।। ५२ ।। [ चापदार्थसंग त्याग के लिये विज्ञानमात्रोपदेश ] बुद्ध ने जो यह उपदेश दिया है कि- 'विज्ञानमात्र ही पारमार्थिक वस्तु है- ज्ञान से अतिरिक्त जो 'कुछ अवगत होता है, वह सब मिथ्या है इसका भी तात्पर्य क्षणिकत्वोपदेश की तरह वस्तु के तास्वरूप के प्रतिपादन में नहीं है किन्तु ज्ञान भित्र वस्तु को मिथ्या बताकर धनधान्यादि में मनुष्य की आसक्ति को दूर कराने में है । यह उपदेश सामान्यतः सभी शिष्यों के लिये दिया गया है अथवा ज्ञान और ज्ञानभिन्न सम्पूर्ण वस्तुत्रों में क्षणिकत्व का उपदेश सर्व साधारण मनुष्यों के लिये किया गया है और ज्ञानवाद का उपदेश अहं प्रर्थात् ज्ञाननय के सिद्धान्त को समझ सकने में समर्थ कतिपय अत्यन्त बुद्धिमान् शिष्यों को उद्देश करके दिया गया है । ।। ५२ ।। ५३ वीं कारिका में यह तटस्थ वर्णित तात्पयं अयुक्त नहीं है किन्तु यही युक्त है इस तथ्य का उपपादन किया गया है। न चैतदुक्तं युद्धाकृतं न युक्तमित्याह- मूलम् - न चैनदपि न न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः । सुर्ववद् विना कार्य हव्यासत्यं न भाषते ॥५३॥ , न चैतदपि = अनन्तरमुक्तम्, न न्याय्यं न सतिमिति वाच्यम् यतो बुद्धी महा मुनि:- विदितच्च निरुपधि परदुःखग्रह। खेच्छामूलक देशनाप्रवृत्तिशाली च परैरिष्यते, अतोऽयं सुवद कार्य विना = परहितानुबन्धि प्रयोजनं विना न भारते द्रव्यासत्यम् । यथा हि वैद्यः कटुकटुकषानभीतस्य परस्य प्रवृत्तयेऽकटुकमपि वदन् नानाप्तः स्यात्, तथा वृद्रोऽयक्षणिकेकरूयं ज्ञप्तिमात्रास्वभावं च विनेयमतिपरिष्काराय तथा वदपि नानाप्तः स्यात्, अन्यथा तु स्यादेव । तथा च तदात्वे तद्देशनाया अब तात्पर्यम्, अन्यथा तु तस्यानाप्तत्वमेवेति भावः ॥ ५३ ॥

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