Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 214
________________ स्या० १० टीका एवं हिन्दी विवेचन । १९९ प्रथं से सुखदुःख की ज्ञान-क्रिया और जलानयन की क्रिया एकसाथ होती है और जल तथा अन्य द्रध्य के आनयन की क्रिया क्रम से होती है। क्योंकि एक ही घट से जल अन्न वालुका आदि का आनयन एकसाथ नहीं हो सकता । इन सभी क्रियाओं को समष्टि हो अर्थक्रिया शब्द से अभिहित होती हैं । उनमें कुछ अर्थक्रिया साधारण मनुष्यों से गृहोत होती हैं और कुछ नहीं गृहीत होतो। अत: जिस घट से कभी जलानयनादि कार्य नहीं होता उसमें अक्रियाकारित्व का अभाव समझ कर उसे असत नहीं कहा जा सकता । क्योंकि ऐसा घट भी सिद्धपुरुषों द्वारा गहीत होता है । अत: ऐसे घट में अन्य प्रकार की अर्थक्रिया में विवाद होने पर भी ज्ञानज्ञेयत्वादिपर्यायरूप अर्थक्रिया निविवादरूप से होती है । अत: अथ कियाकारित्वरूप सस्व द्रव्यात्मना स्थिर वस्तु में युक्तिसङ्गत होता है। इसलिये नित्य में अर्थक्रियाकारित्व के अभाध का ग्रह न हो सकने से अर्थ में क्षणिकत्वसाधक परिशेषानुमान की कल्पना दुःशक्य है। व्याख्याकार ने इस विचार का दो पद्यों में उपसंहार किया है-जिन में प्रथम पद्य का आशय यह है कि बौद्ध-पक्षी क्षणिकत्वपक्ष का अवलम्बन कर विभिन्न विशाओं में उड्डयन करने अर्थात अपने पक्ष को रक्षा के लिये विभिन्न युक्तिओं का अवलम्बन करने में समर्थ नहीं रह गया है, क्योंकि उस का बहु प्रकार से प्रसरणशील क्षणिकत्वपक्ष जैन ताकिकों को तर्कशक्ति से उच्छिन्न हो चुका है। दूसरे पद्य का प्राशय यह है कि बौद्ध द्वारा अवलम्बित क्षणिकत्व पक्ष का उच्छेब स्पष्ट देखते हये समझदारों का यह कर्तव्य है-उन्हें अपने हित के लिये स्याद्वादविद्या का आस्था पूर्वक अवलम्बन करना चाहिये ॥ ५० ॥ ___५१ वी कारिका में बौद्ध के क्षणिकत्यवाद का तटस्थ पुरुषों द्वारा वणित तात्पर्य बताया गया है क्षणिकत्ववादतात्पर्य विषयवार्तामाहमूलम्-अन्यत्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवत्तये । क्षणिक सर्वमेवेति वुडेनोक्तं न तत्त्वतः ॥५१॥ अन्ये तु-मध्यस्थाः एवमभिदधति यदुत-एतदास्थानिवृत्तये रागनिबन्धनविषयनित्यस्ववासनापरित्यागाय, 'क्षणिकं सर्वमेव' इति युद्धे नोक्तम् , न तत्वत: न यथाश्रुततत्त्वबोधनाभिप्रायेण । उच्यते चानित्यतामाश्नाभावनायवमस्मदीयैरपि । तदुक्तम्- [ योगशास्त्र ४-५७ ] "यत्प्रातस्तन्न मध्यावे, यद् मध्याह्न न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन हि पदार्थानामनित्यता ॥" इति ॥५१॥ [राग उच्छेद के लिये क्षणिकलोपदेश ] कुछ ऐसे मध्यस्थ मनीषी हैं जिन का यह कहना है कि बुद्धने भावमात्र में जो क्षणिकत्व का उपवेश दिया है वह 'क्षणिकत्व ही भावमात्र का तात्त्विकरूप हैं इस अभिप्राय से नहीं, किन्तु इस अभिप्राय से उपदेश दिया है कि जगत के पदार्थों में मनुष्य की आस्था न हो । अर्थात् मनुष्य जगत् के विषयों को नित्य समझकर उन में प्रासक्त न हो-यही विश्व को क्षणिक बताने में बुद्ध का तात्पर्य है। क्योंकि जो स्थिरवादी विद्वान हैं वे मी जगत में अनित्यता की भावना भावित करने के लिये जगत के पदार्थों को क्षणिकता का उपपादन करते रहते हैं-जैसे कहा है कि-जो वस्तु प्रातः देखने में प्राती है

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