Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 216
________________ स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] २०१ [ बुद्ध का पूर्वाति तात्पर्य ही युक्तियुक्त है ] बुद्ध का क्षणिकत्व और विज्ञानवाद के उपदेश का जो तटस्थ द्वारा तात्पर्य बताया गया है, वह अयुक्त नहीं है किन्तु बही युक्तिसङ्गत है, क्योंकि बौद्ध सम्प्रदाय वाले मानते हैं कि बुद्ध एक महामुनि है, वे तत्त्ववेत्ता हैं और वे निःस्वार्थ भाव से मनुष्यों के दुःख को दूर करने की इच्छा से उपदेश देने में प्रवृत्त है, अतः सुबंध के समान वे परहितसाधनरूप प्रयोजन के विना द्रव्य असत्य का भाषण नहीं करते। आशय यह है कि जैसे सुबंध कडुद्रा औषध पीने के लिये तैयार न होने वाले रोगी को उस औषध के सेवन में प्रवृत्त करने के लिये कटु श्रौषध को भी मधुर बताते हुये अनाप्त-असत्यवादी नहीं माना जाता, उसीप्रकार बुद्ध भी जो वस्तु दव्यात्मना स्थिर है और ज्ञानमात्रस्वभाव नहीं है उसे भी शिष्यों की बुद्धि को परिष्कृत वैराग्यवासित करने की भावना से सर्वात्मना क्षणिक और सर्वथा ज्ञानैकस्वरूप बताते हुये अनाप्त नहीं हो सकते। यदि बुद्ध के उक्त उपवेश का यह तात्पर्य न मानकर वस्तु की तात्विक रूपता के प्रतिपादन में माना जायगा तो वे निश्चित ही अनाप्त होंगे, क्योंकि वस्तु का बुद्ध द्वारा उपदिष्ट उक्तरूप तात्त्विक नहीं है । यतः वे आप्त पुरुष है अतः उनके उपदेश का वही तात्पर्य हो सकता है अन्यथा उनको अनाप्तता का निराकरण असम्भव है ।। ५३ ॥ ५४ वीं कारिका में माध्यमिकों के मत का उल्लेख किया गया है दान्तरमाह - मूलम् — ब्रुवते शून्यमन्ये तु सर्वमेव विचक्षणाः । न नित्यं नाप्यनित्यं यस्तु युक्त्योपपद्यते ॥५४॥ अन्ये तु विचक्षणाः=वितण्डापण्डिता माध्यमिकाः, सर्वमेव वस्तु शून्यं ब्रुवते । कुतः १ इत्याह- यद्यस्मात् वस्तु युक्त्या विचार्यमाणं न नित्यं नाप्यनित्यमुपपद्यते ॥ ५४ ॥ , [ माध्यमिक के शून्यवाद की मीमांसा ] दूसरे विद्वान जो वितण्डा कथा में अत्यन्त कुशल हैं और जिनकी 'माध्यमिक' शब्द से तार्किक क्षेत्र में प्रसिद्धि हैं वे समस्त वस्तु को शून्यात्मक कहते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि से, वस्तु के सम्बन्ध में युक्तिपूर्वक विचार करने पर वह नित्य अथवा अनित्य किसी भी रूप 'नहीं उपपन्न होतो १५४।। ५५ कारिका में पूर्वोक्त कारिका के वक्तव्य को हो स्पष्ट किया गया है-एतदेव प्रकटयाह- मूलम् — नित्यमर्थक्रियाभावात् क्रमाक्रमविरोधतः । अनित्यमपि चोत्पादव्ययाभावान्न जातुचित् ॥ ५५ ॥ क्रमाक्रमविरोधतः = क्रमव द्विज्ञानादिकार्यकारित्वे भेदप्रसङ्गात्, अक्रमवत्कार्यकारित्वे चैकदा सर्वकार्योत्पत्तेः अर्थक्रियाभावाद् नित्यं वस्तु न युक्तम् । अनित्यमप्युत्पादव्ययाभावाजातुचिद् न युक्तम् । न हि तौ स्वतः परतः, उमाभ्याम्, अनिमित्तों वा संभवतः । आये, कारणापेक्षा भावेन देशादिनियमाप्रसक्तेः । द्वितीयेऽपि सत्त्वे कारणत्रदुत्पत्तिविरोधात,

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