Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 225
________________ २१० [ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो०-५८-५९.६० पक्षद्वये दोषमाह - मूलम् — शून्यं चेत्सुस्थितं तत्त्वमस्ति बेच्छून्यता कथम् ? 1 तस्यैव ननु सद्भावादिति सम्यग्विचिन्त्यताम् ॥ ५८ ॥ शून्यं चैव शून्यतायां प्रमाणं तदा सुस्थितं सम्यग् व्यवस्थितं तत्त्वम्, अवस्तुसता प्रमाशेन प्रमेयच्यवस्थितेरित्युपहासः । अस्ति चेतु प्रमाणं तत्साधकम् तदा कथं शून्यता तस्यैवप्रमाणस्य सद्भावात् तच्चरूपत्वात् सकलपदार्थाभावाऽसिद्धेः, इति सम्यग् विचिन्त्यतां माध्यस्थ्यमालव्य || ५८ ॥ यदि शून्यतासाधक प्रमाण भी शुन्य हो तब तो शून्यता तत्त्व की बडी अच्छी सिद्धि होगी ! अर्थात् यह एक उपहास की बात है कि प्रमाण के असव होने पर भी प्रमेय की सिद्धि हो । तथा यदि शून्यता का साधक कोई प्रमाण विद्यमान है तो वह प्रमाण हो एक सत्यवस्तु सिद्ध हो जाता है अतः उस के रहते समस्त पदार्थ के अभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है यह माध्यमिक को भी मध्यस्थभाव से अर्थात् अपने मत में प्रभिनिवेश का परिश्याग कर सोचना चाहिये ।। ५८ ।। ५६ वीं कारिका में माध्यमिकों को इस प्राशंका का कि 'शून्यता प्रतीयमान अर्थों से विलक्षण किसी वस्तुरूप में प्रतिभासित नहीं होती अतः उस में प्रमाण का अन्वेषण निष्फल है किन्तु समस्तधर्म की प्रतिभाससुल्यता ही शुन्यता है - इस का उत्तर दिया गया है अथ न शून्यता नाम काचित् विविक्ता प्रतिभासते यस्य प्रमाणान्वेषणं फलवत् स्यात्, किन्तु प्रतिभासमत्वं सर्वधर्माणामित्याशङ्क्याह मूलम् प्रमाणमन्तरेणापि स्थादेवं तत्त्वसंस्थितिः । अन्यथा नेति सुन्यकमिदमीश्वरचेष्टितम् ॥ ५९ ॥ प्रमाणमन्तरेणापि विनापि व्यवस्थापकम् एवं तत्त्वसंस्थितिः सर्वधर्माणां मायोपमत्वव्यवस्थितिः स्यात्, अन्यथा - अनुभूयमानानन्तधर्मात्मकरवे च न स्याद् व्यवस्थितिः । इदमीश्वरथेष्टितम् – स्वतन्त्राज्ञामात्रम् । सर्वधर्मराहित्येऽपि मानमवश्यमन्वेपणीयमिति भावः ॥५६॥ 'प्रमाण के बिना भी समस्त पदार्थों में मायोपमत्व की सिद्धि हो सकती है और समस्त पदार्थों में अनन्तधर्मात्मकता का अनुभव होने पर भी सिद्धि नहीं हो सकती' - यह निर्णय ईश्वर की केवल निराधार श्राज्ञा ही कही जा सकती है। किन्तु किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है जिसकी केवल आज्ञा से ही वस्तु का कोई तात्त्विक या अहात्विक रूप सिद्ध हो सके । अतः परमार्थसत् वस्तु समस्त धर्मों से रहित होने में भी प्रमाण का श्रन्वेषण आवश्यक है । । ५६ ।। ६० वीं कारिका में उक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत कर उसका निराकरण किया गया है। .. पराशयमाशङ्क्य निराकुरुते मूलम् — उक्तं विहाय मानं बेच्छून्यतान्यस्य वस्तुनः । शून्यत्वे प्रतिपाद्यस्य ननु व्यर्थः परिश्रमः ॥ ६० ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231