Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 209
________________ १६४ । शास्त्रवार्ता० स्त० लो०४५ नाश हो जाता है, त्यों ही ज्ञान को उत्पत्ति होती है क्योंकि अर्थ और ज्ञान में हेतु-हेतुमद्भाव बौद्धमत में भी मान्य है । यतः हेतु-हेतुमद्भाध उन्ही पदार्थों में होता है जिन में पूर्वापरभाव होता है, अतः अर्थ का वर्तमानसम्बन्धित्वरूप से जो 'अयं नीलः' इत्यादि रूप में ज्ञान होता है वह नीलादि को क्षणद्वयतक स्थायी माने बिना नहीं उपपन्न हो सकता, क्योंकि ज्ञान का वर्तमानक्षण नीलादि का द्वितीयक्षण होता है। अतः उस क्षण में नीलादि के रहे विना इसका तत्क्षणसम्बन्धित्वरूप से जान कथमपि सम्भव नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'इन्द्रियजन्य ज्ञान में उसके कारणभूत अर्थ का वर्तमानकालीनत्यरूप से भान नहीं होता अपितु ज्ञान के उत्पत्तिकाल में जो ज्ञान में अर्थ का समान आकार उत्पन्न होता है उसी का भान होता है। उस आकार का वर्तमानत्वरूप से भान होने से ही उस ज्ञान को वर्तमानत्वेन अर्थनाही ज्ञान कहा जाता है। यह समीचीन नहीं है क्योंकि ज्ञानकाल में नीलादि बाह्यदेश से सम्बद्ध होकर भासित होता है । क्योंकि 'अयं नीलः' इसप्रकार इदन्वरूप से ही मील के भान का उदय होता है और इन्स्य पुरोवेशसम्बन्धरूप ही है, अतः उसमें ज्ञानाकारता असिद्ध है। यदि प्रा. अबभासमान शान कोका बाद्य अकार माना जायगा तो अन्त: प्रवभार दृष्टि से ज्ञान और सुखादि में कोई अन्तर न होने से सुखादि में भी बाह्याथ को समानकारता सिद्ध हो आयगी। फलतः बाह्यार्थ और तत्प्रयुक्त सुखादि के कारणरूप बाह्मार्थ के ज्ञान का उच्छेद हो जायेगा । यदि इस दोष के भय से यह कहा जाय कि-'ज्ञान के जनकभूत अर्थ को जान की समानकालिकता आवश्यक नहीं है, अतः ज्ञान में तत्तदाकारता की उपपत्ति के लिये यह मानने को आवश्यकता नहीं है कि ज्ञान अपने उदयकाल में उत्पन्न होने वाले आकार का ग्राहक होता है, तथा यह भी मानना सम्भव नहीं है कि उसके जनकभूत अर्थ का ही वर्तमानतथा मान होता है, क्योंकि अर्थ क्षणिक होने से ज्ञान काल में अतीत हो जाता है अतः वर्तमानतया उसका प्रतिभास सम्भव नहीं है। किन्तु युक्ति. संगत यह है कि सभी जान कल्पित आकार को ग्रहण करता है। अतः ज्ञान से गहीत हो ले इस आकार में ज्ञानाकारत्व को अनुपपत्ति का प्रश्न ही नहीं खड़ा हो सकता । क्योंकि कल्पना के सम्मुख कोई अनुपपत्ति नहीं खड़ी हो सकती।"-तो यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि नीलाद्याकार ज्ञान को कल्पित विषयक मानने पर नोलज्ञान और द्विचन्द्रज्ञान में कुछ वैलक्षण्य न हो सकेगा, क्योंकि दोनों ही ज्ञानों के विषय में प्रारोपितत्व समान है और अबायार्थ यादी को उन दोनों ज्ञान में अवलक्षण्य कथमपि स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान मात्र को आरोपित विषयक मानने पर ज्ञानों में प्रमाण और अप्रमाण का यानी प्रमा और भ्रम के विभाग का विलय हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि-"ज्ञान और अर्थ एकसामग्रीजन्य होने से सहभाबी होता है अतः अर्थ क्षणिक होने पर भी वर्तमानतया उसका ग्रहण सम्भव है। इस वैभाषिक मत का आश्रय लेने से उक्त दोष नहीं हो सकता" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि भानक्रिया में तत्तदर्यविषयकत्व का नियम तत्तदर्थरूप ज्ञान के कर्म को कारणता से ही व्यवस्थित होता है । किन्तु जब झाकिया और उसका अर्थ सहभायो होगा तो उन में पौवापर्य न होने से तन्नियत कार्यकारणभाव भी सम्भव न होने से ज्ञान में अर्थविशेषविषयकत्व का नियम ही उपपन्न न हो सकेगा ॥४५॥ ४६ थीं कारिका में अभ्युपगमवाव से अर्थग्रह को स्वीकार कर भाव के क्षणिकत्व पक्ष में अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है

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