Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 204
________________ स्या०० रीका एवं हिन्दी विवेचन ] १८१ किमुदितम् ? इत्याहमूलम्–'अन्ते क्षयेक्षणादादी क्षयोऽदृष्टोऽनुमीयते । सदृशनावरुनुत्पात्तद्ग्रहाहि तवग्रहः' ॥४०॥ अन्ते क्षयेक्षणात्-अन्ते नाशदर्शनाव आदौ-उत्पत्तिकाले, क्षया-नाशः, अदृष्टोऽप्यनुभीयते, अनश्वरस्यान्तेऽपि तदयोगात् । कथं तर्हि प्राक् तदग्रहः १ इत्याह-सदृशेन-तुल्यक्षणेन, अबरुद्धत्वात् । तद्ग्रहादि-सदृशबहादेव, तदग्रहः-आद्यक्षयाग्रहः । अत्र 'घटोत्पत्तिक्षणो घटध्वंसाधिकरणः, घटघंसाधिकरणक्षणपूर्वक्षणत्वात्' इत्यनुमाने घटोत्पनिमाच्यक्षणे व्यभिचारः, हेतौ घटोत्पत्त्यपूर्वत्वविशेषणे च संतानेन व्यभिचार इति दूषणं स्फुटमेवेति ॥४०॥ [ अन्तिम नाशदर्शन में बौद्ध के प्राचीन ग्रन्थ की सम्मति ] "भाव का अन्त में नाश देखा जाता है । उस नाशवर्शन से उत्पत्तिकाल तथा नाशदर्शनकाल के पूर्व सभी क्षणों में भाव के नाश का दर्शन न होने पर भी उसका अनुमान होता है क्योंकि यदि उत्पत्तिक्षण तथा द्वितीयादिक्षणों में उसको अनश्वर माना जायगा तो अन्त में भी उसका नाश न हो सकेगा। इस सम्बन्ध में इस प्रश्न का कि 'यदि उत्पत्तिक्षण में तथा द्वितीयाविक्षरणों में भी का नाश होता है तो उसका प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता?' उत्तर यह है कि उत्पत्तिकाल को उत्तरक्षण में पूर्वोत्पन्न भाव के सदृश दूसरे क्षणिकभाव की उत्पत्ति जैसे होती है इसी प्रकार द्वितीयादिक्षण में भो पूर्वोत्पन्न भाव के सदृश अन्य भाव की उत्तर क्षणों में उत्पत्ति होती रहती है। इन सदृशक्षणों के वर्शन से ही पूर्व में होनेवाले भावनाश के दर्शन का प्रतिबन्ध हो जाता है।" इस प्रसङ्ग में व्याख्याकार ने भाघ के प्रथम-द्वितीयादि क्षणों में बौद्धाभिमत भाव नाश के अनुमान का प्रयोग कर उसका निरकारण बताया है। बौद्धाभिमत अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है कि 'घट का उत्पत्तिक्षण घटध्यंस का अधिकरण है, क्योंकि वह घटध्वंसाधिकरण क्षण का पूर्वक्षण है।' इसी प्रकार घट के द्वितोयाविक्षणों में भी अनुमान का प्रयोग हो सकता है। किन्तु इस अनुमान में व्यभिचार है, क्योंकि घटोत्पत्ति के पूर्व का क्षण भी घटध्वंसाधिकरणक्षण का पूर्व क्षण है किन्तु यह घटध्वंसाधिकरण नहीं है । यदि इस व्यभिचार के वारणार्थ हेतु में 'घटोत्पत्ति के अपूर्वस्व' का विशेषणविधया प्रवेश किया जाय तो घटोत्पत्ति के पूर्वक्षण में व्यभिचार का वारण हो जाने पर भी घटसन्तान में व्यभिचार दोष अत्यन्त स्पष्ट है, क्योंकि सन्तान में घटोत्पत्ति का अपूर्वत्व और घटध्वंसाधिकरण क्षण का पूर्वक्षरणत्व विद्यमान है, किन्तु घरध्वंसाधिकरणत्व सिद्ध नहीं है ॥४०॥ ४१ वीं कारिका में प्रथम द्वितीयादिक्षणों में भावनाश के अग्रह के बौद्धोक्त हेतु का निराकरण किया गया है। तदअहहेतुं दृपयन्नाह प्रन्थकार:मूलम् -एतदप्यसदेचेति सदृशो भिन्न एव यत् । भेदाऽग्रहे कथं तस्य तत्स्वभावत्वतो ग्रहः ? ॥ ४१ ॥

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