Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 202
________________ स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १८७ से वायु का चाक्षष प्रत्यक्ष नहीं होता, उसी प्रकार रूप को छोडकर किसी अन्य अवयवो का भी प्रत्यक्ष दृष्ट नहीं है। 'चित्ररूप का ग्रहण न होने पर भी किसी अन्य रूप के साथ अवयवो का हट हो सकता है-ह भीही हा . सकता क्योंकि विभिन्न रूपवान अवयवों से उत्पन्न अवयवी में चित्ररूप से भिन्न कोई रूप नहीं होता जिससे कि उस रूप के प्रत्यक्ष के साय घटादि उक्त प्रकार के अवयवो का ग्रहण हो सके।" उपरोक्त संवादी वचन का उद्धरण देते हुए अन्त में व्याख्याकार ने यह कहा है कि बुद्धिमानों को इस तथ्य की ओर ध्यान देना चाहिये कि एकानेक चित्ररूप के समान निस्यत्व-अनित्यत्व आदि रूप से भी प्रत्येक वस्तु एकानेकात्मक होती है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विचार ध्याख्याकार के स्यावादरहस्य नामक ग्रन्थ में प्राप्त है। ३८ वी कारिका में क्षणिकत्व का साधक क्षयेक्षणरूप चतुर्थ हेतु का निराकरण किया गया है'क्षयेक्षणात्' इति तुर्यहेतु दृषयन्नाह--- मूलम्-अन्ते क्षयेक्षणं घाघक्षणक्षयप्रसाधनम् । तस्यैव तत्स्वभावत्वायुज्यते न कदाचन ॥३॥ अन्ते क्षयेक्षणं च अन्ते नाशदर्शनं च, आद्यक्षणक्षयप्रसाधनं प्रथमक्षणे वस्तुनः सर्वथा नाशस्यानुमापकं तदुक्तम् , तस्यैव वस्तुनः तत्स्वभावत्वात् अन्त एवं क्षयस्वभावत्वाच, न युज्यते कदाचन तत् , अन्यथाऽतत्स्वभावस्थापत्तेः !॥३८॥ [अन्त में क्षयदर्शन इस चौथे हेतु की आलोचना का प्रारम्भ ] भावमात्र में क्षणिकत्व को सिद्ध करने की बौद्धों को एक युक्ति यह है कि घट-पटादि माव पदार्थों का अन्त में नाश देखा जाता है, इस से यह अनुमान होता है कि भाव नश्वर स्वभाव है । जब नश्वरत्व उसका स्वभाव है तो वह भाव किसी भी क्षण स्वभाव से मुक्त नहीं हो सकता। अतः जिस क्षण में घटपटावि के नाश का दर्शन होता है उसके पूर्व क्षणों में मो उसका नाश होता है। इस प्रकार भाव को क्षणिकता अर्थात् प्रतिक्षण नाशग्रस्तता सिद्ध होती है। अर्थात भाव अपनी उत्पत्तिक्षण से लेकर और अपने अन्तिम क्षण तक अर्थात् अपने नाशवशं नक्षण के प्रव्यवहितपूर्वक्षण तक सम्पूर्ण क्षणों में नाशग्रस्त होता है । यद्यपि ऐसा मानने में यह शंका होती है कि भाव का उत्पत्तिक्षण भाव का स्थितिक्षण भी होता है क्योंकि 'आध क्षण का सम्बन्ध' हो उत्पत्ति है और यहो उस क्षण में उसको स्थिति है। अत: उत्पत्तिक्षण में भो भाव को नाशग्रस्त भानने पर एक ही क्षण में परस्परविरोधी स्थिति और नाश का एक वस्तु में समावेश प्रसक्त होता है।"-किन्तु इस का उत्तर यह है कि यदि भाव अपने उत्पत्तिक्षण में अनश्वरस्वभाव होगा तो कालान्तर में भी उसके उस स्वभाव के अनुवर्तन को प्रसक्ति होने से अन्त में उसके नाशदर्शन की अनुपपत्ति होगी। प्रतः उत्पत्ति. क्षण में उसको नश्वरता अन्त में नाशदर्शन को अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध है और उसके दर्शन से उस क्षण में उसको स्थिति भी सिद्ध है अतः दोनों प्रमाणसिद्ध हाने से उनमें विरोध असिद्ध है। इस प्रकार बौद्धमतानुसार भाव अपने उत्पत्तिक्षण में भी नाशग्रस्त होता है। किन्तु बौद्धसम्मत क्षणिकरव

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