Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 130
________________ स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ] ११५ कहना यह है कि बौद्ध का यह मत युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि बौद्धमत के अनुसार सन्तान को उत्पत्ति का संभव नहीं है ॥१३॥ १४ वीं कारिका में सन्तानोत्पत्ति के असम्भव को स्पष्ट किया गया है-- असंभवभय विमोतिमूलम्-सांवृतत्वाद व्ययोत्पादौ संतानस्य खपुष्पवत् । न स्तस्तदधर्मत्वाच्च हेतुस्तत्संभचे कुतः ॥१४॥ सांवृतत्वादः-अपरमार्थसत्यात् , व्ययोत्पादौनाशोत्पत्ती संतानस्य खपुष्पवतवियत्कुसुमस्येव न स्तान संभवतः, नाशोत्पादयोवस्तुधर्मत्वात् । तदधर्मत्वाच्च-संतानाऽधर्मत्याच्योत्पादस्य तत्संभवे-संतानविशेषप्रभवे हेतुः कुतः =न कुतश्चिदित्यर्थः ।।१४॥ बौद्ध के मत में सन्तान की सत्ता प्राविधक है क्योंकि सन्तान स्थिर माना जाता है और बौद्ध मत में किसी भी भावपदार्थ को स्थिरता मान्य नहीं है । जब संतान सांवत -अपारमाथिक है तो जैसे अपारमाथिक होने से आकाशपुष्प का उत्पत्ति-विनाश नहीं होता उसी प्रकार सन्तान का भी उत्पत्ति-नाश नहीं हो सकता क्योंकि नाश और उत्पाद वस्तु के धर्म है। जब उत्पत्ति संतान का धर्म नहीं है तब सन्तान की उत्पत्ति का कोई हेतु कैसे हो सकता है ! अतः शिकारी को शूकरादि से विलक्षण सन्तानोत्पत्ति का हेतु मान कर शुकरादि का हिंसक नहीं सिद्ध किया जा सकता ॥१४॥ १५ वो कारिका में बौद्ध के अभिमत अन्य उत्तर को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है - पुनः पराशयमाशङ्क्य परिहरतिमूलम्-विसभागक्षणस्याथ जनको हिंसको, न तत् । स्वतोऽपि तस्य तत्प्राप्तेर्जनकत्वाविशेषतः ॥१५॥ अथ विसभागक्षणस्य-शूकरक्षणात शशक्षणादेः जनकः हिंसको लुब्धकक्षणः, चरमशूकरक्षणात् शशक्षणसमानकालभावी तजनितकर्मवासनया चाग्रिमलुब्धकक्षणेषु तत्कर्मविषाकफलोपभोग इति भावः । न तत्-नेतदेवम् । कुतः १ इत्याह-स्वतोऽपि-स्वात्मनोऽपि तस्य हिंस्यस्य शूकरक्षणादेः तत्प्राप्ते हिंसकत्वमाप्तेः। कथम् ? इत्याह-जनकत्वाऽविशेषतः लुब्धकक्षणस्येव शूकरक्षणस्यापि जनकत्वमात्रेऽविशेषात् । 'निमित्तकारणतया विसभागक्षणजनकत्वं हिंसकत्वम्, शूकरक्षणस्तूपादानतया तजनक इति न दोष' इति चेत् । न, आन्महिसासंग्रहानुरोधेन हिंसकतायां जनकताविशेषस्यानुपादानात् । 'तथाप्यत्र परहिंसकत्वे विशेषोऽयमुपादीयत' इति चेत् ? किं ततः १ एवमपि शूकरक्षणादेखत्महिंसकताकृतदोषापत्तेबैज्रलेपायमानत्त्वादिति भावः ॥१५॥

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