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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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तय
होता है तो वह सर्वथा कुण्डल नहीं बन जाता क्योंकि ऐसा होने पर उसको सुवर्णरूपता समाप्त हो
और यह भी नहीं है कि-'जब सवर्ण कपडलरूप में परिणत होता है तब वह सुवर्ण सर्वथा यथापूर्व ही बना रहता है उसमें कोई नवीनता नहीं पाती। ऐसा मानने पर कुण्डल का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा । इस सम्बन्ध में नियम यह है कि,-'जिस रूप से जो अपने समान काल में अपने से अभिन्न उत्पत्ति का प्रतियोगी अर्थात् उत्पत्ति का प्राश्रय होता है, वह उस रूप से अपने ही परिणाम रूप में व्यवहृत होता है। जैसे कि सुवर्ण अपने समानकाल में अपने से अभिन्न उत्पाद का कुण्डलत्वरूप से प्रतियोगी होता है अत एवं कुण्डलस्वरूप से अपने ही परिणामरूप में व्यवहुत होता है यथा 'कुण्डल सुवर्ण का परिणाम है। इसका अर्थ है कि सुवर्ण स्वयं अपना हो कुण्डलात्मक परिणाम है 1 किन्तु सुवर्ण सुवर्णस्वरूप ले उक्त उत्पत्ति का प्रतियोगि न होने से 'सुवर्ण अपना सुधात्मक परिणाम है इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता । कहने का आशय यह है कि सुवर्ण द्रव्य स्वयं अपने एकरूप से निवृत्त होता है और अपने रूपान्तर से उत्पन्न होता है। निवृत्ति और उदय किसी भी अवस्था में उसका सारा का सारा स्वरूप परिवर्तित नहीं होता। इसीलिये सुवर्ण अपनी पिण्डावस्था का त्याग करते हुये और कुण्डलाकार को धारण करते हुये दोनों हो अवस्था में अपने सुवर्णरूप में अवस्थित रहता है ॥ ३॥
३३ वी कारिका में बौद्ध द्वारा भाबों की कथित अनित्यता का निरास किया गया हैअब पोक्ताऽनित्यतामपाकुर्वनाहमृलम्-यच्चेदमुच्यते ब्रमोऽतादचस्थ्यमनित्यताम् ।
एतत्तदेव न भवत्यतोऽन्यत्वे ध्रवोऽन्वयः ॥ ३३ ॥ यच्चेदमुच्यते निरन्ययनाशवादिभिः-किम् ? इत्याह-मोऽतादयस्थ्यं भावानामनित्यताम् , परिणामिन्ध इष्टसिद्धिस्तदस्माकमिति । अत्रोत्तरम् एतत् अतादवस्थ्यम् , तदेव न भवतीति-'न तत्र किञ्चिद् भवति' [४-३२] इत्याद्यक्तेः, तथाचाऽभवनलक्षणमनित्यत्वं न वस्तुलक्षणम् । अनाअस्माइभवनात् अन्यत्त्वेऽनावस्थ्यस्य, ध्रुवोऽन्वयः, तस्यैव तथाभवनादिति ॥ ३३ ॥
[बौद्धसम्मत अनित्यत्व वस्तुधर्म नहीं है ] बौद्धों का वक्तव्य यह है कि-"भावों का अतावस्थ्य पूर्णरूप से भाव को अनित्यता अर्थात् उसका निरन्वयनाशरूप है, परिणाम का यही स्वरूप है।" अतः यदि अन्यवादियों द्वारा भाव को परिणामी कहा जाता है तो यह बौद्धों को इष्ट है । बौद्धों के इस कथन का उत्तर देते हुये ग्रन्थकार का यह कहना है कि भाव के अलावबस्थ्य का जो स्वरूप बौद्धों को अभिमत है वह 'सदेव न भवति' इस रूप में है, अर्थात् 'कोई भी भाव असववस्थ ही होता है। इसका अर्थ होता है 'उसका सर्वथा अभवन' । क्योंकि-'म तत्र किश्चिद् भवति' इसप्रकार भाव के फिद्भिवन का निषध करके वस्तु के पूर्णरूप से अभवन का ही बौद्धमत में अनित्यता अथवा अतास्वस्थ्य माना जाता है। किन्तु यह वस्तु का लक्षण (धर्म) नहीं हो सकता । अभवन तो अलोकनिष्ठ ही हो सकता है इसलिये प्रतावस्थ्य को प्रभवन से भिन्न हो मानना होगा । प्रर्थात् 'वस्तु का पूर्वस्वरूप की अपेक्षा अन्य विधिस्वरूप का हो