Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 169
________________ १५४ | शास्त्रवार्ता. स्त०६ श्लो० ३७ अभाव । इस प्रकार उक्त लोक प्रीतीति से एक द्रव्य में नष्टत्वरूप अनित्यत्व और मष्टस्वाभावरूप नित्यत्व की सिद्धि स्पष्ट है । इस मान्यता के विरुद्ध यह जो शंका है 'घटरूप-घटत्व यह नष्टता के आश्रय घर में न्यूनयत्ति न होने से नष्टता का अबस्छेदक नहीं हो सकता' वह शंका असंगत है क्योंकि-'दण्डत्वेन वण्डे घटहेतुत्वं न तु ध्यत्वेन'-दण्ड में घरहेता दण्डत्यरूप से है, द्रव्यश्वरूप से नहीं है' इस धाक्य में तृतीया का अवच्छिन्नरवरूप अर्थ सर्वमान्य है। और यहां हेतुता का अबच्छेदक दण्डत्व दण्ड में न्यूनयत्ति नहीं है प्रतः 'अवच्छेद्याश्रय में न्यूनवृत्ति धर्म ही प्रवच्छेदक होता है। यह नियम इसी वाक्य में ही व्यभिचरित है । [ दंडत्वादिस्वरूप होने से हेतुता अन्याप्यवृत्ति न होने की शंका ] यदि यह शंका की जाय कि-"कार्यवृत्ति अन्यथासिद्धि की निरूपकता का अनवच्छेवक और कार्यनियतपूर्ववृत्तिता का अवच्छेदक धर्मवत्ता ही हेतुता है, और एवंभूत दण्डत्वावि धर्मवत्ता रूप हेतुता अन्यान्यत्ति नहीं है। इसीलिये 'पण्डे दण्डस्वेन घर हेतुता, न द्रस्यत्वेन' इस वाक्य का अर्थ यह नहीं हो सकता कि 'दण्ड में दण्डश्यावच्छेदेन घट हेतुत्व और तव्यत्वावच्छेवेन घरहेतुत्वाभाव है, क्योंकिदण्डत्व व हेतुता एक होने से स्व. स्व का अवच्छेदक नहीं हो सकता। किन्तु 'दण्डे-दण्डत्वेन घटहेतुत्वं न तु दुग्धवेन' इस वाण कार्य पार है-टगर में घट हेतुता दण्डत्वाभिन्न होती है किन्तु द्वन्यस्वाभिन्न नहीं होती, तस्यत्वानेवाभावयती होती है। यह अर्थ इस रीति से लम्य है,-'दण्डे इस शन्ध से दण्डवृत्तित्व का, “वत्वेन' इस शब्द से दण्डत्वामिन्नत्व का और 'न व्यत्वेन' इस शब्द से द्रव्यत्वाभव के प्रभाव का लाभ होता है । अतः उक्त वाक्य में तृतीया का अवचिन्त्य अर्थ अमान्य होने के कारण 'अवच्छंद्याश्रय में न्यूनवृत्ति हो अवच्छेवक होता है। इस नियम का व्यभिचार प्रसिद्ध है । अतः मृत्तिका घटरूपेण नष्टा न तु मदपेण' इस वाक्य में घटात्मक रूप नष्टता का अवच्छेवक नहीं हो सकता।"--- किन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि दण्डनिष्ठघर हेतुता जब उक्त प्रकार से दण्डत्वस्वरूप है तब उसमें 'दण्डत्वेन' इस शम से 'दण्डनिष्ठघटहेतुतारूप दण्डवं दण्डत्याभिन्न' इस प्रकार वण्डत्व के अमेव का अन्वयम्रोध नहीं हो सकता। क्योंकि किश्चितिशिष्टतष्ट्रप में अधिशिष्ट तप का अभेवान्वय निराकांश होता है । अन्यथा घट हेतुतात्वरूप से दण्डत्व में वण्डत्व का अभेद-बोध कराने हेतु 'दण्डत्वं घटहेतुत्वम् इस प्रयोग की भी प्रापत्ति होगी। [बोध एऋविशेष्यक होने की शंका का निराकरण ] यदि उक्त के प्रतिवाद में वैशेषिक की ओर से यह कहा जाय कि-"उक्त वाक्य में तृतीया का अर्थ अवच्छिन्नत्व मानने पर भी उससे 'दत्वं दण्डनिष्ठघरहेतुतावच्छेदक, द्रव्यरवं दण्डनिष्ठघटहेतुतानवच्छेदक' अर्थात् 'वण्उत्थ दण्डनिष्ठ घटहेतुता का प्रच्छेदक है और द्रध्यत्व घटहेतुता का अनवच्छेदक हैं. इसप्रकार का बोध नहीं माना जा सकता क्योंकि इस बोध में दण्डव और दव्यत्व उभयविशेष्यकत्व होने से एकविशयकत्व की हानि हो जाती है । अतः 'न द्रव्यत्वेन' इस शव का स्वावच्छिन्नत्वाभाव हो अर्थ मान कर उक्त याक्य से दण्डनिष्ठ घटहेतुता को एक ही को विशेष्य बना कर उस दण्डनिष्ठ घटहेतुता में दण्डत्वावच्छिन्नत्व और वव्यत्वाय रिछत्वाभाव का बोध मानना होगा; और वहीं एकविशेष्यकोष अनुभवसिद्ध है किन्तु 'दाइत्वेन दण्डो घटहेतुः न प्रध्यस्वेन.' इस वावय से

Loading...

Page Navigation
1 ... 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231