Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 190
________________ १७५ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] चाक्षुषहेतुत्वेन रूपं विनापि तादृशघटचाक्षुषत्वोपपत्तिः, घटाकाशसंयोगादीनां गुरुत्वादिवदयोम्यत्वादेव संयोगादिचाक्षुषे स्वाश्रयसमवेतत्व संबन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वाकल्पनात्, तद्वृत्तिसंयोगादिप्रत्यक्षानुपपत्तेरभावात्' इत्याहुः । [ रूपविहीनघटवादी विशेष मत ] कुछ विद्वानों का यह कथन है कि विभिरूपवान् अवयवों से उत्पन्न घट में कोई रूप ही उत्पन्न नहीं होता वह नीरूप ही होता है । ऐसा होने पर भी उस के चाक्षुष प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि द्रव्यचाक्षुष में समवाय से रूप को पृथक् कारण न मानकर द्रव्य और द्रव्यसमवेत चाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से रूप को कारण मान लेने से नीरूप घट का भी चाक्षुषप्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि नीरूप घट में कपालिकागत रूप स्वाश्रयसमवेत वृत्तित्व सम्बन्ध से कारण होगा और नीलघटसमवेत परिमाणादि के प्रत्यक्ष में कपालगतरूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्व सम्बन्ध से कारण होगा, अतः नीरूप घट और तत्समवेत, दोनों के प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति नहीं हो सकती । किन्तु दूसरे विद्वान यह कह कर इस पक्ष का निराकरण करते हैं कि जहाँ कपालिका विभिन्नरूपवदत्रययों से उत्पन्न होगी वहाँ कपालिका भी नीरूप होगी, श्रुतः उस स्थल में घट और घटसमवेतप्रत्यक्ष को उपपत्ति न हो सकेगी । अन्य विद्वानों का मत है कि समवायसम्बन्ध से उद्भूत एकत्व अथवा प्रयोग्यव्यावृत्तधर्मविशेष अर्थात् चक्षुयोग्यवृत्तित्वविशिष्ट द्रव्यत्व यह द्रव्यचाक्षुष के प्रति कारण है अतः विभिन्नरूपवाले अवयवों से आरब्ध घट में रूप न होने पर भी इस का चाक्षुष प्रत्यक्ष हो सकता है। यदि यह शंका की जाय कि "उक्त घट का चाक्षुषप्रत्यक्ष सम्भव होने पर भी उक्तघट में विद्यमान भूतलादि के संयोग का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा क्योंकि घटाकाशसंयोगादि के प्रत्यक्ष का वारण करने के लिये संयोगादि के चाक्षुषप्रत्यक्ष में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूप का अभाव प्रतिबन्धक होता है" तो यह ठीक नहीं है क्यों years के समान घटाकाशसंयोग आदि स्वभावतः अयोग्य होने से ही उस का प्रत्यक्ष न होगा । अतः उस के प्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिये स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपानाव के प्रतिबन्धत्व की कल्पना अयुक्त है । इत्येवमस्मिन् वत चित्ररूपे मिध्यादृशां दृक् तिमिरावृत्त (ति) परोपकृत्यै सुधियोऽत्र चैतज्ज्योतिर्मयं तत्त्रमुदीरयन्ति ॥ | १ || तथाहि 'चित्रावयविना नीरूपत्वं तावदनुभयवाधितम्, तत्र रूपवत्ताधियः सार्वजनीनत्वात् । न च संबन्धविशेषेणास्वरूपमेव तत्र प्रतीयत इति वाच्यम्, अन्यत्राप्यवयवरूपस्यैवैकत्व परिणामाख्यसंबन्धेनावयविंगततया प्रतीतावस्मन्मतप्रवेशात् । न चान्यत्रावयथगतेभ्योऽनेकरूपेभ्य एकस्यावयविगतस्य विलक्षणस्यैव रूपस्यानुभवादयमदोप इति वाच्यम्, अत्रेव तत्रापि वृत्तित्वाचच्छेदेनकत्वस्य तदवयववृतित्वावच्छेदेन च नानात्वस्पाऽविरुद्धत्वात् । एतेन 'सनीले रूवयविनि नीला नीलं स्वस्वावच्छेदेनोत्पद्यमानं रूपमविरोधाद्

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