Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 191
________________ [ शास्त्रवासी० स्त० ६ श्लो० ३७ व्यापकमेवोत्पद्यते, सजातीय-विजातीयेषु नानापदार्थेषु जायमानं समूहालम्बनमिवैकं ज्ञानम्' इति वीधितिकृदुक्तं निरस्तम्, समूहालम्बनेऽप्येकत्यस्य संख्यारूयस्य त्वयानभ्युपगमाव, आश्रयगतैकत्वस्य चातिप्रसङ्गात, 'एकम्' 'एकम्' इत्यनुगतधिया सकलकवृत्त्यतिरिक्तकत्वस्वीकारे च द्वित्वादेरपि तादृशस्य स्वीकतु मुचितत्वेनैकत्व-द्वित्वाद्यविरोधात, एवमेव घटज्ञान-पटज्ञानयोरै क्यमित्यत्र द्विश्चनस्य सुघटत्वात्, भिन्नभिन्नावच्छेदेन तत्रैकत्व-द्वित्वोभयसमावेशसंभवात, प्रयोगस्य च विवक्षाधीनत्वात् । उवाच च वाचकमुख्य:- "अपिताऽनपितसिद्ध" [ तत्वार्थवत्र ५-३१] इति । एकत्वद्वित्वयोवृनाववच्छेदको च तद्व्यक्ति-तदंशौ। तथाप्येतद्व्यक्त्यवच्छेदेन 'इदमेकं ज्ञानम्' इत्येकत्वभानवद् घटे 'इदमेकं रूपम्' इत्युपपत्तावपि नानावयवरूपेष्यपि 'इदमेक रूपम्' इति धीः स्यादिति चेत् ? न, अभेदविवक्षायामिष्टत्वात्, भेदविवक्षायां च 'इदनुभयं नैकम्' इत्यत्रोभयत्वेनापृथक्कृततद्व्यक्तः पृथक्कृतकत्वानवच्छेदकार शक्तता पृथक किमान च्छेदकस्यात् । 'इदमुभयात्मकम्' इत्युभयत्वविशिष्टेदंत्वस्यैकत्वपर्याप्त्यनवच्छेदकत्वेन न स्यात, 'इदमेक रूपम्' इति तु शुद्धदंत्वस्यैकत्वपर्याप्त्यवच्छेदकत्वेन स्यादिति चेत् ?-स्यादेव यदि प्रदीर्घाध्यवसायिना तेनेदंत्वमेकावं च विविच्य न यर्यालोच्येतेति दिग। [चित्ररूप के विषय में व्याख्याकार की मीमांसा ] व्याख्याकार ने चित्ररूप के सम्बन्ध में अनेक मतों का उपस्थापन कर यह बताया है कि उक्त समस्त मतवादी मिथ्यादर्शनी है अतः उन सभी की दृष्टि तिमिर (=अज्ञान) से आवृत है। अतः यह आवश्यक होने से कि चित्ररूप के सम्बन्ध में सत्य जिज्ञासुओं के हितार्थ विद्वज्जन प्रकाशमय तत्व का उद्घाटन करते हैं जिससे मिथ्याइष्टियों को भी आंख खुल जाय और चित्ररूप के सम्बन्ध में जो वास्तविकता है उसका अवबोध उन्हें भी हो जाय । इसी अभिप्राय से व्यास्याफार ने चित्र रूप के सम्बन्ध में अग्रिमविचार प्रस्तुत किये हैं। उनका कहना है कि-- [रूपविहीन घट स्थिति अनुभव विरुद्ध है ] विभिन्नरूपवान अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी द्रध्य को नीरूप मानना अनुभवविरुद्ध है क्योंकि उस द्रव्य में भी रूप की बुद्धि होना सर्वजनानुभवसिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि "ऐसे अधययो द्रव्य में जो रूप प्रतीत होता है वह उस द्रध्य का अपना सप नहीं होता कित उसके अवयवों का रूप होता है जो स्वाथयसमवेतत्व सम्बन्ध से उस में भासित होता है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उस द्रव्य के प्रमयवों में विद्यमान रूप अनेक हैं और उस द्रव्य में रूप को एकत्वेन प्रतीति होती है । यदि अवयवगत अनेक रूपों की ही दमन प्रतीति मानी जायगी तो जैसे विभिन्नरूपवान् अवयवों से उत्पन्न अययधी द्रध्य में अतिरिक्त रूप न मानने पर भी अवयवगत अनेक रूपों की एकत्वेन प्रतीति की उपपत्ति की जायगी, उसी प्रकार एकजातीय रूपवाले विभिन्न अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में भी अतिरिक्त एक रूप की उत्पत्ति मानना आवश्यक न होगा, क्योंकि उस

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