Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 192
________________ स्या का टीका एवं हिन्दी विवेधन ] ৭৬ दव्य के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि उस में भी अवयवगत रुप हो एकस्वपरिणामा. रमकसम्बन्ध से प्रतीत होता है, और ऐसा मानने पर जन मत का प्रवेश अपरिहार्य हो जायगा। कहने का आशय यह है कि अवयवगत अनेकरूपों का अवयवी में एकस्वेन परिणाम होता है अतः यह परिणाम अवयवी के साथ अवयसम्रूप का सम्बन्ध बन जाता है। इस प्रकार इस सम्बन्ध से अवयवी में अवयवगतरूप की एकरूपात्मना प्रतीति सम्भव हो सकती है। [विलक्षणरूप का अनुभव एकरवपरिणाम विरोधी नहीं है ] इसके विपरीत यदि यह शंका को जाय कि-"एकजातीयरूपवान् अनेक अवयवों से उत्पन्न अवयवी तव्य में प्रवयवगत अनेक रूपों से एक विलक्षणरूप का अनुभव होता है अत एव यह मानना उचित नहीं प्रतीत होता कि अवयवगतरूपों का हो अवयवी में एकत्वेन परिणाम होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवयवी में प्रतीयमानरूप में अवयवरूपों की अपेक्षा वैलक्षण्य न होने से उसका अनुभव न हो सकेगा"-तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि जैसे विभिन्नरूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में प्रतीत होने वाले रूप में घटवृत्तित्वावच्छेवेन एकत्व और अवयवत्तित्वावच्छेदेन अनेकत्व मानने में कोई विरोध नहीं होता, इसी प्रकार एकजातोयनानारूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में प्रतीयमानरूप में भी घटवत्तित्वावच्छेदेन एकत्व और प्रययमवत्तित्वावच्छेदेन अनेकत्व मानने में कोई विरोध नहीं है । अतः उक्त अवयवी द्रव्य में अवयवगत अनेक रूपों से एक विलक्षणरूप के अनुभव में कोई बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि अवयवीद्रश्य में प्रतीत होने वाले रूप में अवयवगतरूपों से जो विलक्षणता प्रतीत होती है वह और कुछ न होकर केवल एकात्मतारूप है और यह एकात्मता अनेकरूपों में भी घरवृत्तित्वाधच्छेदेन सम्भव है क्योंकि घट एक है। [ एकसमूहालम्बनज्ञानवत् एकरूपोत्पत्ति-दीधितिकार ] इस संदर्भ में दीधितिकार का यह कहना है कि-अनेक नील अवयवों से उत्पन्न अवयवी में जो नोल उत्पन्न होता है वह यद्यपि तत्तन्नीलाबच्छेदेन उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, किन्तु ऐसे अवयवी में अवयवगत विभिन्न नीलरूपों से विभिन्न नील की उत्पत्ति मानने में गौरव तथा युक्त्यभाव होने से यही मानना उचित होता है कि सम्पूर्ण अवयवगत नील अवयधी में सर्वावयवव्यापी एक नीलरूप को उत्पन्न करते हैं। यह ठीक उसी प्रकार सुसंगत है जैसे सजातीयविजातीय अनेक पदार्थों में उत्पन्न होने वाला एक समूहालम्बनज्ञान । आशय यह है, जैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ अपना अलग अलग शान उत्पन्न करते हैं किन्तु जब ऐसे अनेक पदार्थों को एक साथ अपने ज्ञान उत्पन्न करने का अवसर होता है तो वे भिन्न भिन्न ज्ञान को न उत्पन्न कर एक हो समूहालम्बन ज्ञान व्यक्ति को उत्पन्न करते हैं जो उन सभी पदार्थों को विषय करता है। इसी प्रकार एक एक नीलावयच अलग रूप को उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखते हुये भी जब एक साथ उन्हें रूप को उत्पन्न करने का अवसर प्राप्त होता है तो उन सभी से एकरूप को उत्पत्ति मानना ही न्यायसंगत है। [समूहालम्बन ज्ञानगत एकत्व संख्यारूप नहीं है-उत्तर पक्ष ] व्याख्याकार ने दीधितिकार के उक्त कथन का निराकरण करते हुये यह समीक्षा की है कि समूहालम्बन ज्ञान में भी जो एकत्व माना जाता है वह दीधितिकार को भी संख्यारूप में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान और संख्या दोनों ही गुण है अतएव ज्ञान में संख्यात्मक एकत्व नहीं रह सकता।

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