Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 178
________________ स्था.क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] १६३ आपत्ति प्रसक्त होती है- यह इस प्रकार, नीलपोतारम्घ घट में चित्ररूपवादी के पक्ष में नोलादिरूप की उत्पत्ति तो होती ही नहीं है- होती है केवल चित्ररूप की उत्पत्ति, किन्तु उक्त प्रतिबन्धकता को मानने पर चित्ररूप नोलेतररूपत्वेन नील से प्रतिबध्य हो जाने के कारण न उत्पन्न हो सकेगा। [ नव्यमत की ओर से गौरव का आपादान-पूर्वपक्ष ] मध्य नैयायिक :- साम्प्रदायिक नैयायिकों के मत में भी नीलत्वादि हो नीलेतररूपादि का प्रतिबध्यतावच्छेवक होगा, न कि नोलेतररूपत्वावि नीलादि का प्रतिबध्यतावच्छेदक । क्योंकि नीलस्वावि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा नौलेतरस्वादि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने में गौरव है । इस पर यदि साम्प्रदायिकों को प्रोर से यह प्रश्न किया जाय कि नीलत्व को प्रतिबध्यताबच्छेवक मानने पर नोलेतरत्य को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानना होगा और नीलेतरत्व को प्रतिबध्यतावच्छेवक मानने पर नीलत्व प्रतिबन्धकताक्छेदक होगा अतः नीलस्व को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानने को अपेक्षा मोलेताच पो प्रतिक्षायाछेदका मानाने में गौरव होने से नीलेतररूपादि के प्रति नोलस्वेन प्रतिवन्धकता वाला पक्ष ही उचित है"-तो साम्प्रदायिकों की यह उक्ति ठोक नहीं है क्योंकि प्रतिबध्यतावच्छेदक का गौरव ही दोषरूप होता है, प्रतिबन्धकतावच्छेदक का गौरव दोषरूप नहीं, कारण जो प्रतिबध्यतावच्छेदक होता है वह प्रतिबन्धकाभाव का कार्यतावच्छेदक होता है। अतः प्रतिबन्धकामाधनिष्ठ कारणता जो कार्याऽव्यवहितप्रापक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरणवृत्तिअभावप्रतियोगित्वाभाव रूप है उस के प्रतिबध्यतावच्छेवक कोदि में गुरुतरप्रतिबध्यतावच्छेवकरूप कार्यतावच्छेदक का प्रवेश करने से कारणता के शरीर में गौरव होगा, किन्तु प्रतिबन्धकतावच्छेदक के गुरु होने से प्रतिबन्धकतावच्छेदकावच्छिन्नाभावरूप प्रतिबन्धकामाध के गुरुतरशरीरक होने पर भी कारणता के शरीर में उस का प्रवेश न होने से कारणता के शरीर में लाघव होगा। दूसरी बात यह है कि प्रतिबन्धकतावच्छेदकावच्छिन्नाभाव को गुरुशरीरक होने पर भी उसे तद्व्यक्तित्वरूप से कारण मानने में लाघव होगा । किन्तु प्रतिबध्यतावच्छेदक के गुरु होने पर कार्यकारणभाव में लाधव नहीं होगा क्योंकि प्रतिबन्धकप्रभाव का कार्यतावच्छेदक गुरु होगा। अस्तु वाऽवच्छेदकतया नीलादों समवायेन नीलादीनामेव हेतुत्वम् । न च नानारूपवत्कपालारज्यघटनोलस्य तत्कपालावच्छेदेनोत्पत्तिप्रसङ्गः, केवलनीलत्वादिनैव तद्धतुत्वात् । समवायेन नीलादौ च स्वसमवाथिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलादीनां हेतुन्वम् । व्याप्यसिनीलस्थलेऽव्याप्यवृत्तित्ववारणाय चावच्छेदकतया नीलादी स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमायित्वसंपन्धेन नीलेतररूपादीनां हेतुत्वम् , इत्यष्टादश कार्यकारणभावाः । चित्ररूपेऽप्येतावन्त एक, चित्ररूपे नीलेतररूपादिषट्कस्य, नीलादी नीलादिषट्कस्य हेतुत्वात् , नीलादौ नीलेतरादिषट्कस्य प्रतिबन्धकलाञ्चेति नाधिक्यम् । नव्य नैयायिक कहते हैं- अथवा अवयवी में उत्पन्न होने वाले प्रत्याप्यसिनीलादि की अवच्दछकतासम्बन्ध से पीतादि भाग में उत्पत्ति का परिहार करने के लिये अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलादि का कारण मान लेने से अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलावि के प्रति नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकता न होने से उक्त प्रतिवन्धकता की कल्पना

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