Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 185
________________ १७० [ शास्त्रमा स्त० ६ श्लो० ३७ सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलेतराभाव को अवच्छेदकता सम्बन्ध से कारण मानना असम्भव है। केचित्त-विजातीयचित्रं प्रति स्वविजातीयत्व-स्वसंघलितत्वोभयसंवन्धेन रूपविशिष्टरूपत्वेनैव हेतुत्वम् । स्वजात्यं च चित्रत्वातिरिक्त यत्स्ववृत्ति तद्धिन्वधर्मसमवायित्वम् । स्वसंवलिंतत्वं च स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायिवृत्तित्वम् । न च स्वत्वाननुगमः, संवन्धमध्ये तत्प्रवेशान्' इत्याहुः । [विजातीय चित्र के प्रति रूपकारणता में विशेष मत ] कुछ लोगों का कहना है कि, विजातीयचित्र अर्थात् रूपमात्रजन्य चित्र के प्रति स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्व उभयसम्बन्ध से रूपविशिष्ट रूप कारण है । इन सम्बन्धों में 'स्वविजातीयत्व' का अर्थ है चित्रवभिन्न स्ववृत्ति धर्मों से भिन्न धर्म का समवायसम्बन्ध से आश्रयत्व, और दूसरे स्वसंवलितत्व' सम्बन्ध का अर्थ है स्व के समवायसम्बन्ध से आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले द्रव्य का जो समवाय सम्बन्ध से पाश्चय, उस में वृत्तित्व । जैसे यदि किसी घट की उत्पत्ति नील और पोत कपाल से होती है तो उस घट में विजातीयचित्र की उत्पत्ति होती है । क्योंकि, कपालगत पीतरूप कपालगतनीलरूप से विशिष्ट हो जाता है। जैसे स्वपद से कपालगत नीलरूप, उस में वृत्ति चित्रवभिन्न धर्म नीलत्व-रूपत्व आदि । उससे भिन्न पीतत्व रूप धर्म का समवाय से आश्रयत्व अन्य कपालगत पीतरूप में है। इसी प्रकार दूसरे सम्बन्ध में स्व का अर्थ है-कपालगतनीलरूप, उसका समवाय से आश्रय नौलकपाल, उसमें समवाय से रहने वाला द्रव्य घट, उसका समवाय से आश्रय पोतकपाल. उसमें पीतत्व वत्ति है। इस प्रकार उक्त दोनों सम्बन्धों से रूपविशिष्टरूप स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से घर में विद्यमान है। अतः इस घर में रूपमात्रजन्य विजातीय चित्ररूप को उत्पत्ति निधि है । इस में यदि यह शंका की जाय कि-"स्वत्व प्रतिव्यक्ति वृत्ति होने के कारण अननुगत होता है अतः उक्त सम्बन्धों में विजातीय चित्र को उत्पत्ति न हो सकेगी।"-तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि स्वत्व का प्रवेश प्रकार या विशेष्य वल में करने पर हो अननुगम दोष होता है किन्तु प्रकृति में स्वत्व का प्रवेश सम्बन्ध के शरीर में है अतः अननुगम दोष नहीं हो सकता क्योंकि सम्बन्ध के शरीर में स्वत्व का प्रवेश केवल परिचायफरूप में होता है, विशेषणरूप में नहीं होता, कारण यह फि सम्बन्ध द्वारा जिसका वंशिष्ट्य विविक्षित होगा वही सम्बन्ध के पूर्वभाग से स्वभावतः जुटता है। परे तु-नीलपीतोभयाभाव-पीतरक्तोभयाभावादीनां स्वसमयायिसमवेतत्वसंबन्धावच्छिनप्रतियोगिकाना, समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां च विजातीयविजातीयपाकोभयाभावादीनां यावचावच्छिन्नप्रतियोगि । ताक एकोऽभावश्चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुः' इत्याहुः । [चित्ररूप के प्रति अभाव कारणतावादी विद्वानों का मत ] अन्य विद्वानों का कहना है कि-नीलपीत एवं पीत रक्त आदि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से जिस में रहते हैं उसमें चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार जिस में विजातीयरूप जनक

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