Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 164
________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १४६ वार्य होगी। अतः न्यायसंगत तथ्य यह है कि एक वस्तु में नित्यत्वाऽनित्यत्व का समावेश न माना जाय।" (यह वैशेषिकों का कथन पूरा हुआ।) अत्र ब्रूमः-प्रत्यमिव वस्तुनो नित्यानित्यत्वे मानम्, पूर्वोत्तरततेदंतास्वभावभेदानुविद्धस्यैवोर्वतासामान्याख्याभेदस्य तया विषयीकरणात् । न च तत्तेदंतोभयनिरूपितकस्वभावमेव तत्, भिन्भकाले तदभावादेव च तदननुभव इति सांप्रतम् , 'इदानीं तत्तास्वभावमिदम्' इति व्यवहारप्रामाण्यप्रसङ्गात् । किञ्च, विशिष्टात्यन्ताभादवद् विशिष्टध्वंसोऽपि परेणाऽकामेनापि स्वीकर्तव्यः 'शिखी विनष्टः' इति प्रतीतैरन्यथानुपपत्तेः । न च विशेष्यनाशसामग्रयभावाद् विशिष्टनाशानुपपत्तिः, विशेषणात्यन्ताभावकृतविशिष्टात्यन्ताभाववद् विशेषणादिनाशकृतविशिष्टनाशसंभवात् । विशेषणनाशादेव परम्परासंबन्धेन तत्प्रतीत्युपपत्त्या विशिष्टनाशाऽसिद्धौ च स्वपर्याप्त्यधिकरणसंबन्धेन द्वित्वाभावादिनैव 'द्वौ न स्तः' इत्यादिप्रतीत्युपपत्तौ द्विस्वावच्छिन्नाभावादेरप्युच्छेदप्रसङ्गः। एवं च श्वणनिशिष्यध्यमाद स्थैर्य मंदालित स्थैर्य सिद्धम् , विशिष्टातिरिक्तत्ववादिनः सार्वभौमस्य मते च सुतराम् | न च तन्मते विशिष्ट सत्तानिश्चयेऽपि सत्तासंदहापत्तिः, परस्यापि विशिष्टसत्तानिश्चयस्य सत्तानिश्चयत्वशून्यतया विशिष्टसत्तानिश्चयत्वेन पृथक्प्रतिबन्धकतावश्यकत्वात् । न चानन्तविशिष्टपदार्थकल्पनापत्तिः, परस्यापि विशिष्टनिरूपिताधिकरणतानन्त्यकल्पनस्यावश्यकत्वात् । विना च विशिष्टातिरेक 'शिखरविशिष्टे पर्वते न वह्विधीः' इति धीने सुघटा।। [वैशेषिकों के विस्तृत पूर्वपक्ष का जैनों की ओर से प्रतिकार ] वैशेषिक के उक्त कथन के विरुद्ध जैन विद्वानों की ओर से यह कहा जा सकता है कि वस्तु के नित्यत्वाऽनित्यत्व में प्रत्यभिज्ञा ही प्रमाण है। क्योंकि पूर्ववत्ती तता और उत्तरवर्ती इदन्ता, इन दो स्वभावों के भेद से मिलित अभेद ही उस प्रत्यालिजा का विषय होता है । जिसे न्याय की परिभाषा में अवतासामान्य कहा जाता है और उसके इस नामकरण का बीज यह है कि-'पूर्व से प्रारम्भ होकर उत्तर उत्तर में अनुत्तित होना।' यह पूर्वोत्तरभावी वस्तुओं में अनुगत होने वाले मूलद्रव्यस्वरूप होता है । जैसे प्रतिक्षण परियत्तित होने वाला घटादि तथा मुद्गरादि के अभिघात से उत्पन्न होने वाले कपालादिरूप उसके विलक्षण परिणाम में अनुस्यूत होने वाला मिट्टो द्रव्य । [ तत्ता-इदंतानिरूपित एक स्वभाव वस्तु होने की शंका ] __ इस पर यदि यह शंका की जाय कि--"तत्ता और इदन्ता रूप विभिन्न स्वभाव की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है किन्तु वस्तु तत्ता और इदन्ता उभय से निरूपित एकस्वभावरूप ही होती है। इदन्ताकाल में तत्तानिरूपितरवेन और तत्ताकाल में बदन्तानिरूपितत्वेन वस्तु स्वभाव का अनुभव इसलिये नहीं होता कि उस समय स्वभाव के निरूपक तत्ता और इचन्ता विद्यमान नहीं होती। और स्वभाव का अनुभव निरूपक के अनुभव के साथ ही होता है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि, तत्ता और इदन्ता इन दोनों से निरूपित एक ही स्वभाव वाली वस्तु मानने पर 'इदानी तत्तास्वभावमिवम्'

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