Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 157
________________ १४२ [ शास्त्रधार्ता० स० ६ श्लो० ३७ पत्तेः । तथा, सर्वथैव हि सन्चासद् न जायते, सत्स्वभावत्वहानित:-असद्भवनस्वभावस्य सद्भवनस्वभावस्य विरोधात सद्भावस्याऽप्यप्राप्तेः । निरूपिततत्वमेतत् ।। ३६ ॥ [ असत सत नहीं होता, मत असत नहीं होता। . असत् यानी एकान्तरूप से तुच्छ वस्तु सत यानी अतुच्छ कभी भी नहीं होतो एवं सद् वस्तु असद् भी नहीं हो सकती क्योंकि-'तुच्छ का अतुच्छ बनाने वाली तथा अतुच्छ को तुच्छ बनाने वाली किसी भी शक्ति का अस्तित्व जगत में नहीं है । यदि विना शक्ति के भी तुच्छ अतुच्छ हो जायगा तो शाशविषाणादि को भी सत्ता होने का अतिप्रसद्ध होगा। क्योंकि-तुच्छ में व्यवस्थित रूप से अतुच्छ को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होने से, सभी तुच्छों के सम्बन्ध में शक्ति का अभाव समान होने से, एक तुच्छ के भवन के समान अन्य तुच्छों के भो भवन की आपत्ति दूनियार होगी। इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि जो सर्वथा सत है वह प्रसत भी नहीं होता क्योंकि असत् होने पर सत्स्वभाव की हानि हो जायगी। कारण, असभवन स्वभाव और सद्भबनस्वभाव में विरोध होने से असद्भवत होने पर सद्भवन की स्थिति सुरक्षित नहीं रह सकती। 'असत् सत् नहीं होता और सत् असत् नहीं होता' इस विषय को चर्चा पूर्व में विस्तार से की जा चुकी है ।। ३६ ॥ ३७ बों कारिका में इस सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है । प्रस्तुतमुपसंहरमाह__ मूलम् - नित्येतरदत्तो न्यायात्तत्तधाभाचतो हि यत् । प्रतीतिसचिवात्सम्यक्परिणामेन गम्यते ॥ ३७॥ अत: असदादः सदाधनापते, तत्तथाभावतः तस्यैव तथाभवलेन, हि-निश्चितम् , तत्-वस्तु, परिणामेन प्रतोतिसचिवात् अनुभवसधीचीनात् , सम्यग-न्यावान नित्यतरद् गम्यते, नित्यं च तदितरच्चेति कर्मधारयः, इतरत् अनित्यम् । असत् सत् नहीं हो सकता और सत् असत् नहीं हो सकता किन्तु सद्भूतबस्तु अन्यरूप में प्रादुर्भूत होती है अत: अनुभव सहकत यक्ति से यह सिद्ध है कि वस्तु परिणाम से ही रूपांतर को प्राप्त होती है अतः वस्तु केवल एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य न होकर कथश्चित् नित्य अनित्य उभय-स्वरूप होती है। अन चैशेषिकादयः-प्रत्यभिज्ञया तत्तेताविशिष्टयोरभेदलक्षणे स्थैर्य सिद्वेऽपि कथमेकस्य नित्यानित्यरूपम्य वस्तुनः सिद्धिः, घटप्रतियोगिकत्वेन धंसानुभव काले समानसंविसंवेद्यतया घटे धंसप्रतियोगित्वलक्षगाऽनित्यत्वानुभवेऽपि नित्यत्वाननुभकात , भंसप्रतियोगित्वतदग्रनियोगित्वलक्षणयोनित्यत्वाऽनित्यत्वयोविरोधाच ? ! अथ प्रतियोगिसत्यमात्रेण नाभावविरोधः, किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगि सत्वेन, अतः एकवटवत्यपि द्विल्लासच्छिन्नतदभावः (विद्यते)। न च–'यट-पटौं न स्तः'

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