Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 160
________________ स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन | १४५ [ सामानाधिकरण्यायभावेपि....का अवतरण ] वैशेषिकः -'घटपटो न स्त' यह प्रतीति वित्त्व का विशेष्यतावच्छेदक जो घटत्वपटत्वादि धर्म, तवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से द्वित्वसमानाधिकरण घटत्वादि से विशिष्ट प्रभाव को विषय करती है अथवा घटत्व पटत्व एतदन्यतर धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रभाव को विषय करती है तो-पूर्वोक्त दोष नहीं होगा क्योंकि-'यत्किञ्चित् घर और यफिश्चित पट के प्राश्रय देश में जो अन्य यत्किश्चित घट और पट व्यक्ति का अभाव है वह द्वित्व के विशेष्यतावच्छेवकीमत घटत्वाद्यवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से द्वित्वसमान रणीभूत घटत्वादि से विशिष्ट नहीं है और न वह प्रभाव घटत्व-पटत्व अन्यतरावच्छिन्न प्रतियोगिताक है । अत एव उस अभाव को विषय कर 'घटपटौ न स्तः' इस प्रतीति को प्रापसि नहीं हो सकती। [सामानाधिकरण्या०.... ] जैन:-यह मो ठीक नहीं है क्योंकि-द्वित्वसामानाधिकरण्य का और घटत्व-पटत्व अन्यतरत्वका ज्ञान न रहने पर भी 'घटपटोन स्तः' इस प्रनगताका कारप्रतीति का उदय होता है। किन्तु उसे द्वित्वसमानाधिकरणविशिष्ट प्रभावत्वरूप से अथवा घटत्व-पटत्वान्यतरावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्वरूप से अभावविषयक मानने पर सामानाधिकरण्य और अन्यतरत्व की प्रज्ञान दशा में उक्त प्रतीति न हो सकेगी। [ द्वित्वाधिकरणयोरेव...का अवतरण ] वैशेषिकः-उक्त प्रतीति को स्वपर्याप्ति अधिकरण सम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकद्वित्वाभावविषयक मानकर उक्त समस्त दोषों का परिहार किया जा सकता है। [वित्वाधिकरणयोरेव०.... ] जैनः-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि-'उक्त प्रतीति द्वित्वाधिकरण में हो प्रतियोगित्व को विषय करती है अत एव द्विस्वाधिकरण में प्रतियोगित्व का प्रपलाप कर उसे द्वित्व में प्रतियोगित्व का ग्राहक मानना प्रयुक्त है । प्रतः एक एक घटपटादि वाले देश में घटपटोभयत्वेन घटपटादि के अभाव को मानना अनिवार्य होने से प्रतियोगी के साथ अभाव का विरोध सिद्ध न होकर प्रतियोगितावच्छेदकार्थाच्छन्न के साथ ही अभाव का विरोध सिद्ध होता है। [द्वित्वावच्छिन्नप्रति..... ] वैशेषिक प्रतिपादन के बीच में जनों की ओर से न चकेका० इत्यादि से जो उपरोक्त निवेदन किया गया उसके उत्तर में वैशेषिक कह रहा है कि इसके विरोध में यह कहा जा सकता है कि 'घटपटो न स्तः' इस प्रतीति द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वरूप से घटाश्रय देश में पटवान्छिन प्रतियोगिताक अभाष और पटाश्रय देश में घटस्वावच्छिन्न प्रतियोगिश्वकत्वेन तदघटान्यघटाभावको विषय करती है अत: उक्त प्रतीति से द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक अतिरिक्त घटपटोभयामाव की सिद्धि न होने से प्रतियोगि के साथ अभाय विरोध निर्वाध है।वशेषिकों के न च 'घट-पटौ० इत्यादि से किये गये प्रतिपादन के विरुद्ध जन की ओर से कहा जाय कि यह भी ठोक नहीं है क्योंकि 'अनन्त घटत्वाद्यवच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव में द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोमिताकत्व को कल्पना में गौरव है । अत. द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक एक प्रभाव की सिद्धि लाघव से होती है। और जब द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताफ अभाव सिद्ध है तो यह भी सिद्ध मानना होगा कि अभाव का विरोध प्रतियोगो को सत्ता के साथ नहीं होता किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्न का सत्ता के साथ होता है। श्रतः घट में घटत्वावच्छिमध्यसप्रतियोगित्व के होने पर भी द्रव्यत्वावरिष्ठश्नध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव युक्तिसंगत है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-'तद्भावाव्ययं नित्यम्' अर्थात तद्भामरूप में व्यय का अभाव ही तद्भावरूप से वस्तु की नित्यता है।'

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