Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 155
________________ [ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३४.३५ जाना' ही वस्तु का अताववस्थ्य है । अलीक से व्यावत्ति के लिये यही कहना होगा और ऐसा मानने पर वस्तु का उत्तरोत्तर अवस्था में अन्वय दुनिवार होगा ॥ ३३ ॥ ३४ वीं कारिका में प्रतादयस्थ्य को अभवन से अभिन्न मानने पर दोष बताया गया हैअतोऽभिन्नत्वे चायं दोष इत्याहमूलम्-तदेव न भवत्येतत्तच्चेन्न भवतीति च । विरुद्धं हन्त किश्चान्यदादिमत्तत्प्रसज्यते ॥ ३४॥ 'तदेव न भवति' एतद् वाक्यम् 'तच्चेद् न भवतीति च विरुद्धम् , भवनस्वभावस्याऽभवनत्यायोगान, 'न भवती'त्यतश्च त्वचीत्याऽभवनस्वभावत्वस्यैव प्रतीतेः 'घटोऽघटः' इति तुल्यत्वात् । 'हन्त' इत्युपदर्शने । 'किश्चान्यत्' इति दोपान्तरख्यापने । तच्चेदम्-अभवनमादिमन् प्रसज्यते, तदा भवनात् , इत्यायुक्तपूर्वम् ॥ ३४ ॥ [ 'तदेव' और 'न भवति' का परस्पर विरोध ] ___ बौद्धों का यह कहना कि-"अग्रिमक्षरण में 'तदेव न भवति' अर्थात पूर्वक्षण में जो वस्तु है वहो उत्तरक्षण में नहीं होती"-विरोधग्रस्त है। क्योंकि सत्शरद व्यपदेश्य यही वस्तु हो सकती है जो भवनस्वभाव हो और 'न भति' इन शब्द से जो णित होता है वह अभवनस्वभाव ही होता हैं इस प्रकार भवन और अभधनस्वभाव परस्पर विरुद्ध होने से भवनस्वभाव के बोषक तत्पद का स्वभाव के बोधक 'न भवति' शब्द का सहप्रयोग विरुद्ध है। क्योंकि बौद्ध मतानुसार 'न भवति' ये शब्द अभवनस्वभाव का ही बोधक है. अतः तदेव न भवति' ये वाव 'घटोs अघट है' इन शब्द के समान निराकांक्ष हो जाता है। व्याख्याकार का कहना है कि ग्रन्थकार ने कारिका के उत्तरार्ध में बौद्ध के उक्त कथन में अज्ञानातिशय को प्रकट करने के लिये 'हन्त' इस खेदसूचक शब्द का प्रयोग किया है । व्याख्याकार ने यह भी कहा है कि-कारिका के उत्तरार्ध में कियान्यत् शब्द से ग्रन्थकार ने अन्य दोष को प्रदर्शित किया है जो यह है कि पूर्वक्षणात्मक भाव का अग्रिम क्षण में अभवत मानने पर उस अभवन की सादिता यानी सहेतुकता को प्रसक्ति होगी क्योंकि 'यह पूर्वक्षण में नहीं है और उत्तरक्षण में होता है । इसप्रकार बौद्धों की यह मान्यता प्रभाव तुच्छ और निर्हेतुक होता है' व्याहत होगी ॥३४॥ ३५ वी कारिका में जैन दृष्टि से उक्त परिणामस्वरूपता का ही समर्थन किया गया हैप्रकृतमेव समर्थयमाहमूलम्-क्षीरनाशश्च दध्येव यद् दृष्टं गोरसान्वितम् । न तु तैलायत: सिद्धः परिणामोऽन्वयावहः ।। ३५ ।। दध्येव चो यद्यमानं क्षीरनाशा झीरनाशाभिन्नम्, गोरसान्वितम्-गोरसस्थित्यनुविद्धम्, न तु तैलादि तदनन्धितं तदत्यन्तभिन्नखभावम् , यदः यस्मात दृष्टम् , अतःअस्माद्धेतो, परिणामोऽन्वयावहः अन्वयाक्षेपकः सिद्धः, उत्पादस्य व्यय-स्थित्यविनामृत

Loading...

Page Navigation
1 ... 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231