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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ज्ञान होता है वह भ्रान्त है फिर भी उससे तिमिराविरूप नेत्र दोष को अभ्रान्त व्यवस्था देखी जाती है अतः भ्रान्त ज्ञान से भी विज्ञान में प्रकाशमात्रता को अभ्रान्त व्यवस्था हो सकती हैं तो यह कथन भी ग्रन्थकार की दृष्टि से समीचीन नहीं है ॥२५॥
२६ व कारिका में ग्रन्थकार के उक्त कथन का उपपादन है
कथम् ? इत्याह-
मूलं—नाक्षादिदोषविज्ञानं तदन्यभ्रान्तिवद्यतः
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भ्रान्तं तस्य तथाभावे भ्रान्तस्याऽभ्रान्तता भवेत् ॥ २३ ॥
यतः=यस्मात् तदन्यभ्रान्तिवत् - द्विचन्द्रादिभ्रमवत्, अक्षादिदोषविज्ञानं तिमिरादिदोषविज्ञानम् न भ्रान्तं किन्त्वभ्रान्तमेव, कार्यलिङ्गकानुमानादिप्रभवत्वात् । विपक्षे बाचकमाह - तस्य = अचादिदोपविज्ञानस्य, तथाभावे भ्रान्तत्वे, भावतोऽतादीनां दोषाऽनुपप्लुतत्वात्, भ्रान्तस्य द्विचन्द्रादिज्ञानस्य अभ्रान्तता भवेत्, निर्दोषहेतुत्वादिति भावः ॥ २६ ॥
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अक्ष आदि में जो वोष का ज्ञान होता है वह चन्द्रद्वयादि के अन्य भ्रमों के समान भ्रमरूप नहीं है - किन्तु अभ्रान्त है क्योंकि वह चन्द्रद्रयज्ञानरूप कार्यलिंगक समीचीन अनुमान से उत्पन्न है । fe नेत्रगत दोषज्ञान को भी भ्रम माना जायगा तो नेत्र वस्तुतः निर्दोष हो जायगा क्योंकि भ्रम का विषय असत् होता है । अतः चन्द्रद्वय का ज्ञान जो भ्रम माना जाता है वह निर्दोष हेतुजन्य होने से अभ्रान्त हो जायगा ॥२६॥
२७ व कारिका में उक्त विज्ञानवादी के मत में एक और दोष का प्रतिपादन किया गया हैदोषान्तरमाह
मूलम् - - न च प्रकाशमात्रं तु लोके क्वचिदकर्मकम् ।
दीपादौ युज्यते न्यायादतश्चैतदपार्थकम् ॥ २७ ॥
न च प्रकाशमानं तु सर्वथैकस्वभावमेव लोके क्वचित् = अनवलम्बनदीपादौ न्यायाद् रूपं युज्यते, प्रकाशकत्वेनोपलब्धेः । अतश्चैतत्-विज्ञानाज्ञ, मत्वकल्पनम् अपार्थकम् = निष्प्रयोजनम् ॥ २७ ॥
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लोक में कोई भी प्रकाश सर्वथा प्रकाशमात्रैकस्वभाव नहीं देखा गया है । जैसे प्रदीप-एक लोकप्रसिद्ध प्रकाश है किन्तु वह भी अवलम्बन प्रकाश्य-विवध से मुक्त होकर शुद्ध प्रकाश के रूप में नहीं सिद्ध होता है किन्तु किसी वस्तु के प्रकाशकत्व रूप से ही उसकी सिद्धि होती है। तो इसप्रकार जब प्रकाश प्रकाशकत्व के रूप से सिद्ध होता है तो विज्ञानात्मकप्रकाश में प्रकर्मकश्व की कल्पना निष्प्रयोजन है ||२७||
२८ कारिका में आसन शयनादि अकर्मक क्रियाओं के समान अकर्मक ज्ञान को सिद्ध करने के पूर्वकृत प्रयास का निराकरण किया गया है-