Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 5 6
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 123
________________ १०८ । शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० ११ अमाव का निःस्वभावतया अनुभव माना जायगा तो जैसे शशविषाणादि का उत्पत्त्यादिमदूपेण अनुभव नहीं होता उसी प्रकार प्रभाव का भी उत्पत्ति आदि मद्रूपेण अनुभव नहीं हो सकेगा। किञ्च, अयमीदृशः सन मुद्रादिव्यापारानन्तरमेव कथमुपलभ्यते, नान्यदा ? इति । 'असतोऽपि शुक्ती रजतादेः शुक्तिभ्रमदशायामेव दर्शनपदसन्नपि घटसः परस्तद्वेतुत्वाभिमतानां समवधान एशेपलभ्यत' इति चेत नन्वेचमनन्यथासिद्धान्वय-व्यतिरेकप्रतियोगिमुद्भरादिजन्यत्वस्य घटध्वंसेऽपलापे घटादेप्यसत एव दण्डादिसमाजे भानोपपत्चावपलापग्रसङ्गः । न चेष्टापतिरत्र योगाचारस्येति वाच्यम् , ज्ञानाकारस्यापि घटादेरसत एव तदा स्फुरणापत्तः। घटाद्यर्थिप्रवृत्याद्यन्यथानुपपत्या घटादेः सत्योपगमे घटध्वंसाद्यर्थिप्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या घटध्वंसादेपि सत्त्वं किं नेष्यने । [नाश में मुद्गरादिहेनुता अनिवार्य ] यह भी विचारणीय है कि-यवि विनाश अहेतुक है तो मुद्गरादि के व्यापार के अनन्तर हो क्यों उपलब्ध होता है ? उसके पूर्व भी क्यों उपलब्ध नहीं होता? इस प्रश्न का बौद्ध के मत में कोई समाधान नहीं हो सकता। यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'जंसे शुक्ति में असत् भी रजतादि का सब काल में दर्शन नहीं होता किन्तु शक्तिभ्रम यानी शुक्तिरजतभ्रम दशा में ही उसका वशन होता है उसी प्रकार घरध्वंस के असत् होने पर भी अत्यवादियों द्वारा ध्वंस के हेतु माने जाने वाले पदार्थों का समवधान होने पर ही उपलब्ध होता है'-यह उत्तर ठीक नहीं हो सकता क्योंकि घटध्वंस का मुद्गरादि के साथ अनन्यथा सिद्ध अन्वयव्यतिरेक होने पर भी यदि घटध्वंस को असत् मानकर उसमें मुद्गराविजन्यस्व का अपलाप किया जायगा तो घटादि को भी असत् मानते हुये दण्ड आदि के समवधान में उसके दर्शन की उपपत्ति करके घट प्रादि में वण्डादिजन्यत्य का भी अपलाप किया जा सकता है। घटपटादि बाह्यार्थ का अपलापी योगाचार वादी इसमें इष्टापत्ति नहीं कह सकता क्योंकि उनके मत में भी घटाकारवद् प्रसद् ही ज्ञानाकार के स्फुरण यानी प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। और उसे उनके मत में इष्टापत्ति नहीं कहा जा सकता क्योंकि योगाचार मत में जान भिन्न घटादि की ही असत्ता मानी जाती है, ज्ञानाकार घटादि की सत्ता तो उन्हें भी मान्य है। उक्त आपत्ति के परिहार के लिये बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'घटायों पुरुष को दण्डादि के ग्रहण में नियमतः प्रवृत्ति होती है यह प्रवृत्ति घटााद को दण्डाविजन्य न मानने पर नहीं हो सकती। अत एव दण्डादिजन्य घटादि की सत्ता आवश्यक है -तो इसी प्रकार घटध्वंस के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि 'घरध्वंसार्थी पुरुष की मुद्गारादि के ग्रहण में नियम से प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति भी घटध्वंस को मुद्गरादिजन्य न मानने पर नहीं हो सकती। अतः मुद्गरादिजन्य घटध्वंसादि की भी सत्ता क्यों न मानी जाय? !' यदपि 'भवितत्वेऽमावस्य भावत्वं स्यात्' इति । तदप्यपद्यम् अभावप्रत्ययविपयत्वेन भवितृत्वेऽप्यभावरूपत्वात् , यथा भवितृत्वेनाविशेपेऽपि घट-पटयोः 'घटोऽयम्' 'पटोऽयम्' इति विभिन्नधीविषयत्वाद् विशेषस्तथा भवितृत्वेनाविशेपेऽपि भावाऽभावयोः

Loading...

Page Navigation
1 ... 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231