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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
दुरुद्वरः, तद्विनाशहेत्वदर्शनात् । तदविनाशे वुद्धयादीनामप्यनाशप्रसङ्गः । 'कार्यत्वेन प्रतियोगितया नाशहेतुत्वाद् बुद्धयादीनां विनाशः कल्प्यते' इति चेन् ? तुल्यमिदमन्यत्र । 'भावकार्यत्वेनैव तथात्वाद् न दोष' इति चेत् १ न, भावत्वप्रवेशे गौरवात् , प्रागभावासंग्रहाच्च । यस्तु घटनाशनाशादिधारामेव घटविरोधिनीमङ्गीकुरुते तस्य 'घटनाशो नष्टः' इत्यपि धीदु निवारा । तस्माद् मृद्रादेः कपालायुत्पत्तावन्तरा कस्यचिद् ध्वंमस्याऽदर्शनादकिश्चिद्रूपतयानुभूयमानोऽसन्नेवाऽयम्, न तु सहेतुकः, अनन्ततद्धवादिकल्पने गौरवाच्चेति ।
यह भी दृष्टव्य है कि बिनाश यदि सहेतुक होगा तो हेतुभेव से उसके नानास्वरूप के अनुभव को प्रसक्ति होगी। क्योंकि कारण के भेद से घटादिरूप कार्यों में भेदानुभव दृष्ट है किन्तु ध्वंस का अग्नि और पशु आदि के अभिघात इत्यादि रूप विभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने पर भी उसमें भेवानुभव नहीं होता किन्तु किसी भी हेतु से काष्ठ का ध्वंस होने पर समानरूप से ही 'काष्ठ नष्ट हो गया' इस प्रकार काष्ठ विनाश को प्रतीति होती है।
[सहेतुक पक्ष में नाश के नाश की आपत्ति ] इस के अतिरिक्त यह भी दोष है कि यदि विनाश सहेतुक होगा तो उसके विनाश को आपत्ति भी अपरिहार्य होगी। यहाँ इष्टापत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि विनाश का हेतु उपलब्ध नहीं होता। तथा सहेतुक होने पर भी यदि विनाश का विनाश न होगा तो बुद्धघादि के भी विनाशाऽभाव को प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाश के प्रति कार्य कारण होता है अतः बुद्धयादिरूप कार्य के विनाश की कल्पना की जाती है तो यह युक्ति विनाश के सम्बन्ध में भी समान है क्योंकि विनाश भी कार्य है। 'प्रतियोगिता सम्बन्ध से विनाश के प्रति भाव कार्य कारण है ऐसा मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता'-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कारणतावच्छेदक के शरीर में भावत्व का प्रवेश करने में गौरव होगा और उसका प्रवेश करने पर प्रागभाव का नाशा नहीं हो सकेगा। क्योंकि कारणतावच्छेदक कुक्षि में भावत्व का प्रवेश न करने पर उत्पाद्य और परिपाल्य उभय साधारण कार्यस्वरूप से कार्य को प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाश का कारण मानने पर, प्रागभाव का नाश तो हो सकता है किन्तु कारणतावच्छेदक कुक्षि में भावत्व का प्रवेश करने पर उसका भी नाश न हो सकेगा।
[ घटनाश-नाश की परम्परा मानने पर आपत्ति ] जो कोई इस सम्बन्ध में यह कहता है कि-जैसे घटनाश घट का विरोधी है से घटनाशनाशादि की धारा भी घट को विरोधी है । अत: नाश को सहेतुक और नश्वर मानने पर घटनाश का नाश होने पर भी घटादि के पुनः उन्मज्जन की आपत्ति नहीं हो सकती'-उसके मत में 'घटनाशो नष्ट:' इस बुद्धि का परिहार दुष्कर होगा । अतः निष्कर्ष यह है कि मुद्गरादि से कपालादि की उत्पत्ति होने पर मुद्गरसंनिधान और कपालोत्पत्ति के मध्य में ध्वंस नामक किसी भी अर्थ का दर्शन न होने से ध्वंस के बारे में यही धारणा प्रमाणित होती है कि ध्वंस अफिश्चित रूप तुच्छ रूप से अनुभूत होने वाला प्रसत् पदार्थ है। अतः वह सहेतुक नहीं है। सहेतुक मानने पर उसके हेतु और उसके नाश के हेतु आदि की कल्पना करने में महान् गौरव होगा।"