Book Title: Sharavkachar Sangraha Part 3
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ प्रधान सम्पादकीय १३ आचार्य सोमदेवका ही अनुसरण आशाधरने किया है । आजकल एक नया विवाद पैदा कर दिया गया है कि मद्य मांस मधु आदि अष्टमूल गुणके धारण करनेपर ही प्राणीको बुद्धि शुद्ध होती है अर्थात् मद्यादिका सेवन मिथ्यात्वके सेवनसे भी बड़ा पाप है । किन्तु यह सब आगम विरुद्ध है | आगममें मिथ्यात्वको ही महापाप कहा है । मिथ्यात्व के उदयमें अष्ट मूलगुण धारण करनेपर भी संसारका अन्त नहीं होता और मिथ्यात्वका उदय जाते ही संसारका अन्त निकट हो जाता है । अतः शुद्धबुद्धि होकर ही अष्ट मूलगुण धारण करना यथार्थ है । इससे यह मतलब नहीं निकालना चाहिए कि मद्यादिका सेवन उचित है या उनका त्याग अनुचित है । उनका सेवन तो हर हालत में त्याज्य ही है किन्तु मिथ्यात्वके उदयमें उनके त्यागने मात्रसे बुद्धि विशुद्ध नहीं होती । वह होती है सम्यक्त्व धारण करनेसे । पं० आशाधरजीने उक्त श्लोककी टीकामें 'शुद्धधी' अर्थ 'सम्यक्त्व विशुद्ध बुद्धि' ही किया है । अतः ‘महापापोंको छोड़कर विशुद्ध बुद्धि हो गई है जिसकी' ऐसा अर्थ गलत है । किन्तु सम्यक्त्व विशुद्ध बुद्धि महापापोंको जीवनपर्यन्त छोड़कर जिनधर्मके श्रवणका अधिकारी होता है' ऐसा अर्थ ही आगमानुकूल है । पुरुषार्थ सिद्धयुपायमें इसी प्रकारका कथन है'अष्टावनिष्ट दुस्त रदुरितायतनान्यमूनि जिनधर्मदेशनाया भवन्ति पात्राणि परिवर्ज्यं । शुद्धधियः ॥ है इसका भी अर्थ 'अष्ट मूलगुण धारण कर शुद्ध हुई बुद्धि जिनकी' गलत है । यहाँ भी कर्ता 'शुद्धधियः' है । सम्यक्त्व विशुद्ध बुद्धि इन आठ अनिष्टोंको त्यागकर जिनधर्मकी देशनाके पात्र होते हैं - यही अर्थ यथार्थ है । सभी जैनाचार्यो और ग्रन्थकारोंकी यह विशेषता रही है कि उन्होंने परम्परागत सिद्धान्त संरक्षण किया है और कहीं भी अपने अभिनिवेशसे उसे बाधा नहीं पहुंचाई है। आशाधर जी इस विषय में अत्यन्त प्रामाणिक रहे हैं । सर्वत्र उन्होंने पूर्वाचार्योंके कथनकी ही यथायोग्य पुष्टिकी है । उदाहरण के लिए शासनदेवताओंको ही लीजिये । उन्हें उन्होंने कुदेव ही कहा है । तथा नैष्ठिक श्रावकको विपत्तिग्रस्त होनेपर भी उनकी सेवा न करनेका ही विधान किया है । यथासागारधर्मामृत (३।७-८) की टीका में 'परमेष्ठी पदैकधी : ' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि I 'विपत्तियों से पीड़ित होनेपर भी नैष्ठिक श्रावक शासनदेवताओंको नहीं भजता । पाक्षिक भजता भी है, यह बतलानेके लिए ही 'एक' पद दिया है'। किसी भी अन्य श्रावकाचारमें इस प्रकारका निषेधपरक कथन नहीं है । विधिपरक भी नहीं है । सोमदेवाचार्यके उपासकाध्ययनमें अवश्य यह कथन आता है कि जो श्रावक जिनेन्द्रदेवको और व्यन्तरादिदेवोंको पूजाविधानमें समान मानता है वह नरकगामी होता है । परमागममें जिनशासनकी रक्षाके लिए उन शासन देवताओंकी कल्पना की गई है । अतः पूजाका एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियोंको उनका सम्मान करना चाहिए ।' किन्तु आशाधरजीने इस प्रकारका विधान न करके उसका स्पष्ट रूपसे निषेध किया है । पं० आशाधरजीके सागारधर्मामृतकी अनेक विशेषताएँ हैं । वे निश्चय और व्यवहार दोनों ही पंडित थे और उन्होंने दोनों का ही समन्वय करनेका प्रयत्न किया है । उनके पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 574