Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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( शान्तिसुधा सिन्धु )
तथाऽप्रियः शत्रसमो ध्यथाबोलोक्यश्च सन्ध्या समयेऽपरान्हे । लीला विचित्रास्ति, सरागजन्तो मालिन्यमूलं मनसो भवेद्वा ।। १८ ।।
अर्थ- जब यह मनुष्य किसी प्रातः कालके समय अत्यन्त नौरोग होता है तब प्रिय बन्धु आदि समस्त पदार्थ प्रिय जान पड़ते हैं, सन्तोष देनेवाले जान पड़ते हैं तथा इष्ट और सब तरहसे योग्य मालूम होते हैं | परन्तु दोपहर के बाद जब कोई तीव्र रोग हो जाता है वा तीव्र ज्वर चढ आता है तत्र दोपहर के समय वे ही सब पदार्थ शत्रुके समान दुःख देनेवाले और सर्वाने रोग जान करते हैं यहां तक कि फिर उनको देखना भी बुरा लगता है । इससे यह सिद्ध होता हैं कि सरागी जीवोंकी लीला बडी ही विचित्र होती है अथवा यह सब कल्पना मनको मलिनतासे होती है ।
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भावार्थ - इस संसार में जो-जो सुखके साधन हैं जो-जो स्वादिष्ट भोजन स्त्री पुत्रादिक इष्ट पदार्थ हैं ये सब किसी भी रोगके होनेपर अनिष्ट वा दुःखके साधन हो जाते हैं। यद्यपि वे पदार्थ ज्योंके त्यों हैं । उनमें कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ है तथापि ज्वरादिक रोग में वे सब दुःखदायी जान पड़ते हैं । जाडेके दिनों में जो रुईका कोट सुख देनेवाला समझा जाता है बहि रुईका कोट गर्मी के दिनोंमें दुःखदायी समझा जाता है । यह सब रागद्वेषकी कल्पना है अथवा मनकी मलिनता है । जिन tath हृदयसे रागद्वेष निकल जाता है अथवा मनकी मलिनता निकल जाती है वे जीव अपने आत्माके सिवाय अन्य शरीरादि समस्त पदार्थोंको हेय समझते हैं और इसीलिये वे किसीमें भी राग वा द्वेष नहीं करते । क्योंकि राग वा द्वेषकि कल्पना ही सुख वा दुःखका कारण है। इस प्रकार जो जीव राग द्वेषका सर्वथा त्यागकर देते हैं वे पुरुष समता धारणकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ।
प्रश्न- रोचते रागिणे वस्तु कीदृशं मो गुरो वद ?
अर्थ - हे स्वामिन्! अब यह बतलाइये कि इस संसार में सरागी जीवोंको कैसे पदार्थ अच्छे लगते हैं ?