Book Title: Shantisudha Sindhu
Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 10
________________ (शान्तिसुधासिन्धु ) 'अंस में बह समस्त संकल्प विकल्पोंसे रहित होकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाता है। भावार्थ -- आत्मरमके पान करनेका अभिप्राय आत्माके शुद्ध स्वरूपका अभनुव करना है तथा अनुभव आत्माके सुद्धोपयोगसे होता है । यद्यपि आत्माके शुद्धस्वरूपका अनुभव करना और शुद्धोपयोगका होना दोनों ही आत्माके स्वाभाविक धर्म हैं तथापि कर्मोंने उस स्वभावको ढक रक्खा है। वे कर्म आत्माके शुभ अशुभ भावोंसे आते हैं, महादुःख देनेवाली विषयभोगोंको नष्णासे आते हैं, इन्द्रियजन्य सुस्वोंसे आते हैं और कषायोंसे आते हैं। इसलिये जब यह आत्मा शुभाशुभ भाव विषयभोगोंकी तृष्णा, कषाय और इन्द्रियोंके सुखोंका त्याग कर देता है तब अनुक्रममे पहलेके कर्म नष्ट होकर शुद्धोपयोग प्राप्त हो जाता है और फिर उस शुद्धोपयोगसे यह आत्मा अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभव करने लगता है । . प्रश्न - सुखदं दुःखदं वस्तु मन्यने च कथं जनः ? अर्थ - हे प्रभो ! यह मनुष्य इस संसारक पदार्थोको सुख देनेवाले वा दुःख देनेवाले किस प्रकार मान लेता है ? उत्तर न विद्यते को परमार्थदृष्टया, सुदुःखदं वा सुखदं च वस्तु । तथाप्ययं मन्यत एव मूढस्तथाविधं मोहवशाद्वराकः ॥ १५ ॥ ततो ह्यनिष्टेष्टभवं च दुःख, भंजन्नपीहात्महितेऽतिमन्दः सुख्यस्म्यवोधादिति मन्यते सः, ह्यहो प्रमूढस्य गतिविचित्रा ।। १६ ॥ अर्थ-(इस संसारमें यदि यथार्थ रीतिसे देखा जाय तो कोई भी पदार्थ न तो मुख देनेवाला है और न दुःख देनेवाला है तथापि यह नीच अज्ञानी मनुष्य अपने मोह के कारण उन पदार्थोंको सुख देनेवाला या

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