Book Title: Shantisudha Sindhu Author(s): Kunthusagar Maharaj, Vardhaman Parshwanath Shastri Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad View full book textPage 8
________________ ( शान्तिसुधासिन्धु ) अन्य कोई नहीं कह सकता । तिर्यंचगतिमें छोटे छोटे जीव यों ही चाहे जब मारे जाते हैं तथा पशुओंपर भारी बोझा लादा जाता है, भूखे। प्यासे बंधे रहते हैं, गर्मी सर्दी के महा दुःख भोगते रहते हैं, और सदा पारधीन रहते हैं । मनुष्यगतिम दरिद्रताका दुःख है, रोगोंका दुःख है। विषयोंकी तृष्णाका दुःख है, संतान न होने का दुःख है, मान अपमानका दुःख है और जीविकाका दुःख है । देवगतिमें नीचता ऊंचताका दुःख है। छोटे देव बड़े देवोंकी संपत्ति देखकर जला करते हैं तथा उनको अधिकतर मानसिक दुःख है । इसप्रकार चारों गतियों में महा दुःख हैं इसलिए हे आत्मन् ! यदि तू इन दुःखोंसे बचना चाहता है तो कषायोंका त्याग कर और अपनं आत्माको शुद्ध बनाकर उसमें लीन हो । प्रश्न – बद मे कीदृशो माग भाति समुसारिका अर्थ - हे प्रभो ! अब यह बतलाइये कि कैसा जीव स्वर्गादिकोके सुत्रोंको प्राप्त होता है। उतर- सम्यक्त्वशाली गुणदोषवेत्ता, दानादिकारी शुभयोगधारी । श्रेष्ठं च सौख्यं वरभोगभूम्याः, सर्वार्थसिद्धर्वचसाप्यवाच्यम् ।। ११ ॥ पुनश्च साम्राज्यपदं पवित्रं, भुक्त्येति धीरश्च गतान्तरायम् । प्रयाति मोक्षं क्रमतोऽप्यहो सः, शुभक्रियाया महिमा ह्याधिन्त्यः ॥ १२ ॥ अर्थ - जो पुरुष शुद्ध सम्यग्दर्शनको धारण करता है. जो गुण और दोषोंका पूर्ण विचार करनेवाला होता है, जिन-पूजन और पात्र-दान शुभ क्रियाओंको करता रहता है और जो सदाकाल शुभ योगोंको धारण करता रहता है, ऐसा पुरुष उत्तम भोगभूमिके श्रेष्ठ सुखोंको प्राप्त होता है तथा जो वचनोंसे कहे भी नहीं जा सकें ऐसे सर्वार्थसिद्धिके उत्तम सुखोंको प्राप्त होता है । तंदनंतर वह धीर वीर पुरुष बिना किसी अन्तरायके चक्रवर्ती आदिके पवित्र साम्राज्य पदकाPage Navigation
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