Book Title: Shalopayogi Jain Prashnottara 01
Author(s): Dharshi Gulabchand Sanghani
Publisher: Kamdar Zaverchand Jadhavji Ajmer

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Page 8
________________ ( ४ ) एक जीव की भी हिंसा करने में अत्यंत पाप है तब जंतुओं का समुदाय से भरा हुवा इस मक्खन को कौन भक्षण करें ? अर्थात् किसी भी दयावान् मनुष्य उसका भक्षण करे नहीं. उपरोक्त श्लोक में मुहूर्तात्परतः नहीं मगर अंतर्मुहूर्तास्वरतः कहा है जिसका तात्पर्य यह है कि मुहूर्त के पीछे नहीं मगर मुहूर्त के पीछे उसमें सूक्ष्म जंतुओं के समूह उत्पन्न होते हैं दो समय से लेकर दो घडी में एक समय कम होवे वहां तक अन्तर्मुहूर्त गिना जाता है जिससे हमने दो घड़ी में उत्पन्न होने का लिखा है सो उस ग्रंथ के मत से तो बरावर है मगर सूत्र श्री वेदकल्प देखने से हमारा मन भी शङ्कां शील हो गया हैं क्योंकि श्री वेदकल्प सूत्र के बट्टा उद्देश का ४६ वां सूत्र इस प्रकार हैं. नो कप्पई निरगंथाणवा. निरंगथीणवा पारियारीिराणं तेलेणवा, घरणवा नवणीरणवा वसारणवा गायाई अभंगेत एवा मखेतवा गणस्थगाढागाढ़े रोगाय केसु (४६) अर्थ:-नो: न कल्पे नि. साधु साध्वी को प. पहिला महर का लिया हुवा पिछले महर तक ते. तेल घ. घृत नं. लवणी (मक्खन) व. चरवी मा. शरीर को अ. एक दफे लगाना म. वारवार लगाना ण. इतना विशेष कि गा. गाढ़ागाढ कारण से रोगादिक में लगाना कल्पे. उपरोक्त सूत्र से पहिले प्रहर में लिया हुवा मक्खन आदिका अभ्यंगरण करना तीसरा महरतक साधु साध्वी को कल्पनिक है ऐसा स्पष्ट मालूम होता है यदि मक्खन में योग शास्त्र में कहे अनुसार अंतर्मुहूर्त के पीछे त्रस

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