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बाधा आवै । कारकै क्षेत्रांतरमैं बाधा आवै । तथा केईकै कबहू बाधा न आवै । अर विशेषज्ञानीके ज्ञानमैं बाधा दीखै
है। तहां जेतें बाधा न आवै तेते प्रमाण ठहरै है। सो सम्यग्ज्ञान तो ऐसा चाहिये जो संशय विपर्यय अनध्यवसायहा रहित सर्वकाल सर्वक्षेत्र सर्वप्राणीनिकै समान होय । कोई प्रकार बाधा न आवै । जो जहां जैसैं अविसंवाद होय तहां
तैसैं प्रमाणता है यह वचन कैसे सिद्ध होयगा ? ताका उत्तर- जो, सर्वथा निर्वाध तो केवलज्ञान है । मतिश्रुत है सो HD तो अपने विषयविर्षे भी एकदेशप्रमाण है । बहुरि अवधि मनःपर्यय है सो अपने विपयवि सामस्त्यकार प्रमाण है । टी का अधिकविषयवि प्रमाण नाही । तातें च्यायोंही क्षयोपशमज्ञान प्रमाण भी है अप्रमाण भी है । तातें जिस विषयवि
निर्बाध साधै तहां तो प्रमाण है । बहुरि जहां वाधा आवै तहां अप्रमाण है । जो ऐसे न होय तो केवलज्ञान ही प्रमाण ठहरै । अन्यज्ञान अप्रमाण ठहरै । तो व्यवहारका लोप होय । तातै एक ही ज्ञान प्रमाण भी है अप्रमाण भी है । जैसे काहू पुरुषकै नेत्रवि विकार था, ताळं एक चंद्रमाके दोय दीखै, तहां निर्विकारनेत्रवालेकी अपेक्षा दोय चंद्रमाकी संख्या तौ सबाध भई । बहुरि चन्द्रमाका सामान्यपणां निर्वाध है । तथा निर्विकार नेत्रवालेकू चंद्रमा तौ एकही दीखै, परंतु निकटही दीखै है । ऊगता जमीसूं लगता दीखै । सो याकी ऊंचाईका योजनांकी अपेक्षा सबाध है । तथा I शास्त्रकरि ग्रहणका काल ती निश्चय किया है सो तौ निर्वाध है। परंतु दोय अंगुल च्यारि अंगुल ग्रहण होगा, यह कहनां निर्वाध नाही है । जाते यह विमान केता चौडा है ? तामें केता आच्छादित हुवा ? यह तो प्रत्यक्षज्ञानी जानें, याकी अपेक्षा सवाध है । ऐसें मतिश्रुत अपने विपयविपें भी प्रमाणाप्रमाणस्वरूप है । तथा अन्य भी उदाहरण-जैसे पर्वत तथा वृक्षोंका समूहरूप वन इत्यादि वस्तु दूरितै तौ औरसा ही दीवै निकट गये औरसा ही दीखै ऐसें जानना। इहां कोई पूछे, जो ऐसे है तो यहु याका ज्ञान प्रमाण है यहु याका ज्ञान अप्रमाण है ऐसा नियम कैसें कहिये ? वहुरि नियम कियाविना व्यवहार कैसे प्रवर्तगा! ताका उत्तर- जो, व्यवहार मुख्यगौणकी अपेक्षातै प्रवर्ते है । जैसे काहू वस्तूमैं सुगंध देखि लोक कहै यह सुगंध द्रव्य है, तहां वा द्रव्यवि स्पर्शादिक भी पाईये हैं। परंतु वाकी मुख्यता न करै । तातै जिनके मतवि एकांततें ज्ञान प्रमाण अप्रमाण दोऊ स्वरूप नांही है तिनिकै यह छद्मस्थका ज्ञानकै प्रमाणता न आवैगी । तब. अपना मत भी न सिद्ध होगा।
बहुरि अन्यवादी ज्ञानकोंही प्रमाण मानि याका स्वरूप लक्षण एकांततें अन्यप्रकार कहै हैं । सो भी सवाध है। तहां बौद्धमती कहै हैं, जो ' अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणं, कहिये जामें विसंवाद न होय सो ज्ञान प्रमाण है। ताकू पूछिये; जो कहेगा प्रमाताकी इच्छा जहां पूरि होय जाय तहां अविसंवाद है, तो स्वप्नादिकका ज्ञान भी प्रमाण ठहरैगा, तहां भी