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निका
पान
15 किंनरनिकै किन्नर किंपुरुष ए दोय इन्द्र है। किंपुरुषनिके सत्पुरुप महापुरुष ए दोय इन्द्र है। महोरगनिके अति
काय महाकाय ए दोय इन्द्र है। गंधर्वनिके गीतरति गीतयश ए दोय इन्द्र है। यक्षनिकै पूर्णभद्र माणिभद्र ए दोय | इन्द्र है । राक्षसनिके भीम महाभीम ए दोय इन्द्र है। पिशाचनिके काल महाकाल ए दोय इन्द्र है । भूतनिके
| प्रतिरूप अप्रतिरूप ए दोय इंद्र है ॥ सर्वायसिनि
____ आगें इन देवनिके सुख कैसा है ऐसे पूछ तिनके सुख जाननेके अर्थि सूत्र कहै हैं-- टीका
॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ याका अर्थ प्रवीचार कहिये कामसेवन सो भवनवासीनितें लेइ ऐशानस्वर्गपर्यतके देवनिके कायकरि कामसेवन है । इनके संक्लेशकर्मका उदय है । ताते मनुष्यकी ज्यों स्त्रीका विषयसुख भोगवै हैं । इहां “ आ ऐशानात् " इस शब्दविर्षे आङ् उपसर्ग अभिनिजि अर्थमें हैं, तातें ऐसा अर्थ भया, जो, भवनवासीनितें लगाय ऐशानपर्यंतके कायकरि मैथुन है । बहुरि इहां संधि न करि सो संदेह निवारणके अर्थि न करी है । संधि करिये तब ऐशान ऐसाही सिद्ध होय, तब संदेह रहै, जो, इहां उपसर्ग है कि नाही ? तातें संदेह मेटनेके आर्थि उपसर्ग जुदा राखा है ॥
आगें ऐशानतांई मर्यादा कही ताते अगिले स्वर्गनिविर्षे सुखका विभाग जान्यां नाही, ताके प्रतिपादनके आर्थिं सूत्र कहें हैं
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॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनः प्रवीचाराः ॥ ८॥ याका अर्थ- शेप कहिये कहे तिनते अवशेप रहे देव तिनकै स्पर्श रूप मन इनवि मैथुन है । तहां कहे तिनतें अवशेष जे कल्पवासी तिनकै आगमते अविरोधरूप संबंध करना । पहले सूत्रमें प्रवीचारका ग्रहण तो थाही, यहां फेरि प्रवीचारका ग्रहण याहीके आर्थि है । सो आगमसूं अविरोध स्पर्शादिमैथुन लेना । तहां सनत्कुमार माहेन्द्रस्वर्गके देव
देवांगनाके स्पर्शमात्रहीकरि परमप्रीति पावै हैं । तैसेंही देवांगना भी परमसुख पावै हैं । बहुरि ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांतव । कापिष्ट स्वर्गके देव देवांगनाके शृंगार आकार विलास चतुर मनोज्ञ वेप रूपके देखनेहीकरि परमसुखकं पावै है।
शुक्र महाशुक्र शतार सहस्रारवि देव देवांगनाके मधुर संगीत गावना कोमल हँसना ललित बोलना आभूपणनिके शब्दका