Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 382
________________ पान ३७० सिदि टोका ऐसें बाह्य अभ्यंतर जे परिग्रह, तिनका त्याग, सो व्युत्सर्ग है। याके प्रयोजन निःसंगपणा निर्भयपणा जीवितकी आशाका ! । अभाव ए व्युत्सर्गके फल हैं । इहां ऐसा जानना, जो, व्युत्सर्ग महाव्रतमें भी कह्या, दशधर्ममें भी कह्या, प्रायश्चित्तमें भी कह्या, इहां तपका भेद भी कह्या । सो यामें विरोध नाहीं है। जातें कोई पुरुषतें कोईवि त्यागकी शक्ति होय ऐसे शक्तिकी अपेक्षा अनेकप्रकारकार कह्या है । उत्तरोत्तर उत्साह बढनेका भी प्रयोजन है । इहां एता विशेष और जानना, जो, । । महाव्रतमें परिग्रहका त्याग कह्या है, तहां तौ धनधान्य आदि वाह्यपरिग्रहका त्याग प्रधान है । अर दशधर्ममें कहा है, निका | तहां आहारादिक योग्यपरिग्रहका त्याग कह्या है । अर प्रायश्चित्तमें दोषका प्रतिपक्षी कह्या है । अर इहां तपमें कह्या, । । सो सामान्य है ॥ आगे ध्यानके बहुतभेद कहनेषं न्यारा राख्या था ताके अब भद कहनेका अवसर है, सो ताके 1 पहली ध्यानका करनेवालेका तथा ध्यानका स्वरूप तथा ध्यानका कालकी निर्धारके अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥ २७ ॥ ___ याका अर्थ- उत्तमसंहननका धारी पुरुषके एकाग्रचिंताका निरोध सो ध्यान है । सो उत्कृष्टपणे अंतर्मुहूर्तताई है। रहै। तहां आद्यके तीनि संहननकू उत्तम कहिये बज्रऋपभनाराचसंहनन वज्रनाराचसंहनन नाराचसंहनन ऐसें । ए तीही | । ध्यानके साधन हैं। बहुरि इनमें मोक्षका साधन एक आदिकाही है, अन्यतें मोक्ष होय नाहीं । ऐसें ए तीनि संहनन जाकै होय सो पुरुष ध्यानी है । बहुरि अग्र कहिये मुख, ऐसा एकमुख कहिये एकाग्र जाकै होय, सो एकाग्र कहिये मनकी चिंता है, सो अनेक पदार्थकै अवलंबनतें चलायमान है, याकू अन्यसमस्तका अवलंबनतें छुडाय एकअग्रवि नियमरूप करै, सो एकाग्रचिंतानिरोध है । यह ध्यानका स्वरूप कह्या । वहुरि अंतर्मुहूर्त ऐसा कालका परिमाण है, सो 18 अंतर्गत कहिये मुहूर्तके माही होय, सो अंतर्मुहूर्त कहिये । आङ् ऐसा उपसर्ग जोडै मर्याद भई, जो, अंतर्मुहूर्तताई लेणा आगे नाहीं, ऐसे कालकी मर्यादा कही । जाते एते कालासवाय चिंताका एकाग्रनिरोध होय सकै नाही दुर्द्धर है । इहां प्रश्न, जो, चिंताका निरोध सो ध्यान है, तो निरोग तौ अभावकू कहिये है, तातें ध्यान निर्विपय अभावरूप ठहया, | सो गधेके सींगकी ज्यौं भया । ताका समाधान, जो, यह दोष नाहीं । अन्यचिंताकी निवृत्तिकी अपेक्षा तो अभावरूपही है। बहार चिंता जिसविषयकं अवलंब्या तिसकै आकार प्रवृत्तितें सद्भावरूप है । जाते अभाव है सो भावान्तरके 2. स्वभावरूप है, तातें बस्तुका धर्म है, हेतुका अंग है । अभावतें भी वस्तुही सधै है। अथवा निरोधशब्दकू भावसाघन RI न करिये अर फर्मसाधन करिये, तव जो निरोघरूप भई सोही चिंता ऐसें ज्ञानही चलाचलपणातूं रहित होय एकाग्र भया । परिमाण है, सो // NaI जाकै हता है, सो अनेक पराध है । यह ध्याय । आङ ऐसा उपलकाग्रनिरोध होय साविषय अभावरूप प II जोडै मर्याद भई, जो घ सो ध्यान है, तो मत कालसिवाय चिंताका सो गधेके सींगको

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