Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 356
________________ निका पान ३४४ भव्यसामान्यकी अपेक्षा तौ अनादिनिधन है । बहुरि भव्यविशेषकी अपेक्षाकार सादि सनिधन है । बहुरि नो संसार सो सादि निधन है । बहुरि असंसार सादि अनिधन है । बहुरि तत्रितयव्यपेत अयोगकेवली अंतर्मुहूर्तकाल है। बहुरि पंचपरावर्तनरूप संसारका व्याख्यान तो पहले कियाही है, ताका संक्षेप ऐसा है, जो, द्रव्यनिमित्त संसार तौ 1 च्यारिप्रकार है, कर्म नोकर्म वस्तु विषय, इनके आश्रयतें च्यारि भेद होय हैं । बहुरि क्षेत्रनिमित्तके दोय प्रकार हैं, सिदि ||| स्वक्षेत्र परक्षेत्र । तहां आत्मा लोकाकाशतुल्य असंख्यातप्रदेशी है, सो कर्मके वशते संकोचविस्ताररूप हीनाधिक अव गाहनारूप परिणमैं, सो स्वक्षेत्रसंसार है । वहुरि जन्मयोनिके भेदकार लोक उपजै लोककू स्पर्शे सो परक्षेत्रसंसार है। बहुरि काल निश्चयव्यवहारकार दोयप्रकार है। तहां निश्चयकालकार वाया जो क्रियारूप तथा उत्पादव्ययध्रौव्यरूप परि२णाम सो तो निश्चयकाल निमित्तसंसार है । बहुरि अतीत अनागत वर्तमानरूप भरमण, सो व्यवहारकाल निमित्तसंसार है। बहुरि भवनिमित्तके बत्तीस भेद हैं । तहां पृथ्वी अप् तेज वायु कयिकके भव सूक्ष्म वादर पर्याप्त अपर्याप्तककार सोलह हैं । प्रत्येकवनस्पति पर्याप्त अपर्याप्तककरि दोय हैं। साधारणवनस्पति सूक्ष्म वादर पर्याप्त अपर्याप्तकार च्यारि । हैं । बहुरि बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तकार छह । बहार पंचेन्द्रिय संज्ञी असंज्ञी पर्याप्त अपर्याप्तककार २ च्यार ऐसे बत्तीस भये । बहुरि भावनिमित्तक संसार दोयप्रकार है, स्वभाव परभाव तहां मिथ्यादर्शनादिक अपने भाव है सो स्वभाव है । बहुरि झानावरणआदि कर्मका रस, सो परभाव है ऐसा संक्षेप जानना ॥ जन्म जरा मरणकी आवृत्तिके महादुःखके भोगनेकू में एकही हूं, मेरै कोई मेरा नाही, तथा मेरै कोई पर नाही, मैं एकही जन्मूं हूं, एकही मरूं हूं, मेरे कोई स्वजन नाहीं, तथा मेरे कोई परिजन नाहीं, जो मेरा व्याधी जरा मरण आदिकू मेटै । बंधु मित्र हैं ते मेरे मरण पीछे मसाणताई जाय हैं। आगे जाय नाहीं । मेरै धर्मही सहाय है, सो सदा अविनाशी है । ऐसें चितवन करना सो एकत्वानुप्रेक्षा है ॥ एसें याकू भावनेवाला पुरुषकै स्वजनके वि तौ राग नाही। उपजै है । परजनके वि द्वेप नाहीं उपजै है । तब निःसंगताकू प्राप्त भया मोक्षहीके अर्थि यत्न करै है ॥ __शरीरआदिका अन्यपणाका चितवन, सो अन्यत्वानुप्रेक्षा है । सोही कहिये हैं। बंधक अपेक्षा शरीर आत्माकै एक पणां है।। तौ उपलक्षणके भेदते भेद है । तातें में शरीर” अन्य हूं। शरीर अन्य है । बहुरि शरीर तौ इन्द्रिय गोचर २ है, मूर्तिक कहै । में अतीन्द्रिय हूं, अमूर्तिक हूं। बहुरि शरीर तौ अज्ञानी जड है। में ज्ञानरूप चेतन हूं। वहरि शरीर तौ अनित्य है । मैं नित्य हूं । बहार शरीर तौ आदि अंतसहित है । मैं अनादि अनंत हूं। मेरे शरीर १] तौ या संसारमें भरमतें लाख निवीते अतीत भये । मैं अनादित था सोही हूं। शरीरनितें न्याराही हूं । ऐसै शरीरतेही

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