Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 370
________________ सर्वार्थसिदि ऐसा अर्थसिद्धि होय है । सो सर्वपापका सामान्य एकठ्ठाही त्याग जहां होय सो सामायिकचारित्र हैं । इहां कोई कहै, ऐसा तो गुप्ति भी है । ताका समाधान, जो, यामें मनसंबंधी प्रवृत्ति है, गुप्तिवि प्रवृत्तिका निषेध है । बहुरि याकू समिति भी न काहये । जाते सामायिकवालकू प्रवृत्तिका उपदेश है । ताविर्षे प्रवृत्ति होय ताकू समिति कहिये । ऐसा सामायिकका कारण है सो समिति कार्य है । ऐसा कार्यकारणका भेद है । बहुरि परिहारविशुद्धिवि ऐसा विशेष है, जो, इसकूँ धारै जो पुरुष तीसवर्षका होय, तीर्थकरके निकट पृथक्त्ववर्षताई सेवन किया होय, प्रत्याख्यानपूर्व तहां पढ्या होय, जीवनिकी उत्पत्ति मरणके ठिकाणे कालकी मर्यादा जन्म योनिके भेद देशका द्रव्यका स्वभावका विधानका जाननहारा होय, प्रमादरहित होय, महावीर्यवान होय, जाकै विशुद्धताके बलतें कर्मकी प्रचुरनिर्जरा होती होय, अतिकठिन आचरणका धारणेवाला होय ती संध्याविना दोयकोश नित्य विहार करनेवाला होय, ताकै परिहारविशुद्धिसंयम होय है । अन्यकै नाहीं होय है ॥ वचनिका टीका स.९ पान ३६२ बहुरि सूक्ष्मसांपरायसंयम ऐसैं मुनिके होय है, जो सूक्ष्मस्थूल प्राणिनिकी पीडाके परिहारवि प्रमादरहित होय, बहुरि स्वरूपके अनुभववि बधता उत्साह जाकै होय, जाकै अखंडक्रियाविशेष होय, बहुरि सम्यग्दर्शनज्ञानरूप प्रचंड पवनताकार प्रज्वलित भई, जो शुद्धआशयरूप अग्निकी शिखा ताकरि दग्ध भये हैं कर्मरूप इंधन जाके, बहुरि ध्यानके विशेपकरि क्षीण किये हैं कषायरूप विषके अंकुरे जानें, बहुरि नाशके सन्मुख भया है मोहकर्म जाके, याहीतें पाया है सूक्ष्मसांपराय संयम जानें ऐसा मुनिकै होय है । याका गुप्तिसमितिवि अंतर्भाव जानना । जातें गुप्तिसमिति होते यामें सूक्ष्मलोभकषायका होना यह विशेष गुण है । ताकी अपेक्षा न्याराही जानना । बहुरि सूत्रके अनुक्रमवचनकार उत्तरोत्तर अनंतगुणी विशुद्धता जाननी । बहुरि चारित्रके भेद शब्दकी अपेक्षा तौ संख्यात हैं । वुद्धिके विचारतें असंख्यात है । अर्थतें अनंतभेद हैं । ऐसें यहू चारित्र आश्रवके निरोध” परमसंवरका कारण जानना । अर समितिविपें प्रवर्ते हैं । तामें धर्म अनुप्रेक्षा परीपहनिका जीतना चारित्र यथासंभव जाननें ॥ __आगें पूछे है कि, चारित्र तौ कह्या, ताके अनंतर तपसा निर्जरा च ' ऐसा कह्या था सो अब तपका | विधान कहना । ऐसें पूछे कहै हैं । तप दोयप्रकार है, वाह्य अभ्यंतर । सो भी प्रत्येक छहप्रकार है । तहां बाह्य तपके I | भेद जाननकू सूत्र कहै हैं -

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