Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 366
________________ 1 सर्वार्थ सिद्धि टी का अ १ जुदे ग्रहण करें तहां पर्यायार्थिकनय है । इहां अभेदरूप गौण है, भेदपक्ष मुख्य है । तहां भी किसी एक अंशकूं मुख्य करें तब दूसरा अंश गौण हो है । ऐसे सर्व ही जीवादिक पदार्थ प्रमाणनयकारी सत्यार्थ प्रतिभास हैं । जो सर्वथा एकांतकी पक्ष है सो कल्पना मिथ्या है । जातैं कल्पनामात्र ही है । मिथ्यात्वकर्मके उदय यह निपजै है । वस्तुस्वरूप कल्पित है नांही । बहुरि नय हैं ते श्रुतज्ञानके अंश हैं । मति अवधि मनःपर्यय ज्ञानके अंश नांही । तातें वचन के निमित्ततैं उपज्या जो परोक्ष श्रुतज्ञान ताहीके विशेष संभवै, प्रत्यक्षके विशेष संभवै नांही । बहुरि प्रमाणनयकरि भया जो अपनां स्वरूपका आकार तथा अन्यपदार्थका आकारसहित निश्चय ताकूं अधिगम कहिये । सो यहू प्रमाणका कथंचित् अभेदरूप फल है ॥ केई वेदांतवादी तथा विज्ञानाद्वैतवादी अपनां स्वरूपका निश्चयकों ही अधिगम कहे हैं । केई परका निश्वयकों ही कहै हैं । तिनिका कहना बाधासहित हैं । केई ज्ञानकों अर्थके आकारसमान होनेकों प्रमाण कहै हैं । ताका अभेदरूप अधिज्ञान तौ ज्ञान ही है । गमकूं फल क हैं । सो भी सर्वथा एकांतवादिनिकै वर्णे नांही । ज्ञान अर्थसमान होय नांही । अपनी स्वच्छता अन्य अर्थकों जाने है, तहां तदाकार भी कहिये । बहुरि कोई नेत्र आदि इंद्रियनि प्रमाण कहे हैं । ते भी विना समझा कहै हैं । अचेतन इंद्रिय प्रमाण कैसे होय ? वहुरि भावइंद्रिय ज्ञानरूप हैं ते प्रमाणके भेदनिमैं हैं ही ॥ बहुरि प्रमाणनयकर अधिगम कह्या सो भी ज्ञानात्मकके तथा शब्दात्मकके भेदकारी दोय प्रकार है । तहां ज्ञानात्मक तौ पंचप्रकार ज्ञान है, सो आगे कहसी । बहुरि शब्दात्मक है सो विधिनिपेधस्वरूप है । तहां कोई शब्द तौ प्रश्नके वशर्तें विधिवि ही प्रवर्ते है । जैसें समस्तवस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकारी अस्तित्वस्वरूप ही है । तथा कोई शब्द निपेधविर्षे प्रवर्ते है । जैसे समस्त वस्तु परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि नास्तित्वस्वरूप ही है । तथा कोई शब्द विधिनिषेध दोऊविपैं प्रवर्ते है । जैसें समस्त वस्तु अपने तथा परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि अनुक्रम अस्तिनास्ति स्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेध दोऊकूं अवक्तव्य कहै है । जैसें समस्त वस्तु अपने वा परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि एक काल अस्तित्वनास्तित्वस्वरूप है । परंतु एककाल दोऊ कहै जाते नांही, तातें अवक्तव्यस्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेधकूं क्रमकरि कहै है । एककाल न कया जाय है तातें विधिअवक्तव्य निषेधअवक्तव्य तथा विधिनिपेधअवक्तव्यविप्रवर्ते है । जैसे समस्तवस्तु अपने चतुष्टयकरि अस्तित्वरूप है, वक्तव्य है, एककाल स्वपरचतुष्टयकार अवक्तव्यस्वरूप है । तातें अस्तिअवक्तव्य ऐसा कहिये । तथा ऐसे ही परके चतुष्टयकरि नास्तिस्वरूप वक्तव्य है । एककाल स्वपरचतु - व च निक पान २१

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