Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 364
________________ I) मिथ्यादृष्टीही भले है, बड़े भक्तिवान् हैं, जो अपना गुरु कछु भी नही जानता होय अज्ञानी होय ताकूं भी सर्वशतुल्य मानि तिनका सन्मानकरि अपने मतकी प्रभावना करें हैं । बहुरि सुनिये हैं, जो, पूर्वकालमें व्यंतरआदिक बडे तपस्वीनिका पूजा करे थे सो यह कछु मिथ्याही दीखै है, सो यह साची होय तौ हमसारिखेनिका अवार पूजाआदि क्यों न करें ? ऐसा खोटा चितवन नाहीं करै है । ऐसें मुनिकै सत्कारपुरस्कार परीपहका जीतना जाणिये ॥ १९ ॥ सर्वार्थ सिद्धि टी का म. ९ प्रज्ञा कहिये विज्ञान ताका मद न करना सो प्रज्ञापरीपहका जीतना है । तहां अंगपूर्वप्रकीर्णकके जाननेविर्षे तौ प्रवीण हैं, बहुरि शब्द न्याय अध्यात्मशास्त्रनिविर्वै निपुण है, ऐसा होय तौ मुनि आप ऐसा न विचार, जो, मेरे आगे अन्य ऐसा भासे है " जैसैं सूर्यके प्रकाशकारी तिरस्कार किये जे आग्याकीट प्रकाशरहित दीखै ” ऐसा विज्ञानका मद न करें, सो प्रज्ञापरीषहका जीतना कहिये ॥ २० ॥ अज्ञानपणेकरि अवज्ञार्ते ज्ञानके अभिलाषरूप परीषहका जीतना सो अज्ञानपरीषहका सहन है । तहां मुनिकूं दुष्ट जन कहैं, यह मुनि अज्ञानी है, पशुसमान हैं, कछु जाने नाहीं इत्यादिक निन्दाके वचन कहै, ताकूं सहँ हैं । जो परमतपका आचरण करै है निरंतरप्रमादरहित वर्ते है तो ऐसा न विचार है, जो मेरै अबताई भी ज्ञानका अतीशय नाहीं ऐसा अभिप्राय नाहीं राखै है, ताके अज्ञानपपिहका सहना जानना ॥ २१ ॥ 66 उपज्या, " दीक्षा लेना अनर्थक है ऐसी भावना न उपजै सो दर्शनपरीपहका सहन है । तहां कैसा है मुनि ! परमवैराग्यभावनाकार शुद्ध है मन जाका, बहुरि जाना है सकलपदार्थका यथार्थस्वरूप जाने, बहुरि अरहंत अर अरहंतके प्रतिमा आदि तथा साधु तथा धर्म इनका पूजक है, बहुरि बहुतकालतें मुनि भया है ऐसा है तो ऐसा न विचारे है, जो मेरे अवारताई ज्ञानका अतिशय उपज्या नाहीं, पूर्वै सुनिये हैं, जो महान उपवासादिकके करनेवालेनिकै प्रातिहार्य के विशेष उपजे हैं, सो यह कथनी तौ प्रलापमात्र झूठी है, यहू दीक्षा अनर्थक है, व्रतका धारण विफल है इत्यादिक नाहीं विचारै है । जातै मुनिकै दर्शनकी विशुद्धता योग है । ऐसें अदर्शनपरीषहका सहन जानना ॥ २२ ॥ 66 33 ऐसें बाईस परीवह हैं । परीषह आये क्लेशपरिणाम न करें। तातैं रागादि परिणामतें होय था जो आश्रव, ताके निरोधमें महान् संवर होय है ॥ आगे पूछें हैं, जो, ए परीवह जे मुनि संसारके तरनेकूं उद्यमी भये हैं तिनकूं सर्वही अविशेषकर आवै है, कि कछु विशेष है ! तहां कहै है जो, ए क्षुधाआदि परीषह कहै, ते अन्यचारित्रविर्षे तौ भेदरूप आवै हैं अर सूक्ष्मसांपराय अर उमस्थ वीतरागके सौ नियमकारी जेते होय हैं सो कहें हैं व निका पान ३५६

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