Book Title: Sarvarthasiddhi Vachanika
Author(s): Jaychand Pandit
Publisher: Shrutbhandar va Granthprakashan Samiti Faltan

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Page 341
________________ सार्थ निका पान ३३२ | कहिये । याका भी अंतर्मुहूर्तका काल है । तहां ता५ भोगिकै तौ मिथ्यादृष्टि होयकै फेरि सम्यक्त्वकू || प्राप्त होय है ॥ ____ बहुरि अविरतसंयत चौथा गुणस्थान है । तहां औपशमिक तथा क्षायोपशमिक तथा क्षायिकसम्यक्त्व तो पाईए अर चारित्रमोह की प्रत्याख्यानावरणकषायके उदयतें एकदेश संयमरूप भी परिणाम न होय सकै, तार्ते अविरतसम्यग्दृष्टि रे अप्रत्याख्यानावरणकषायके अभावतें एकदेशविरति परिणाम होय, प्रत्याख्यानावरणके उदयतें सकलटीका | विरति न होय, तातै विरताविरतनाम पावै ऐसा पांचवां गुणस्थान होय, याके धारककू श्रावक कहिये ॥ वहुरि प्रत्या उदयका भी अभाव होय अरु संज्वलननोकपायके तीव्रउदयते किंचित् प्रमादसहित सकलसंयम हाय है, तात प्रमत्तसयत ऐसा नामधारक छटा गुणस्थान होय है । बहुरि संज्वलननोकषायका हीन उदय होत प्रमादका अभाव होय तब अप्रमत्तसंयत सातमा गुणस्थान नाम पावै है ॥ बहुरि संज्वलननोकषायका भी जहां अव्यक्त उदय होय जाय तब उपशमश्रेणी तथा क्षपकश्रेणी नाम पावै है । सो श्रेणीके प्रारंभविष भी करणपरिणाम होय, जहां सातमा गुणस्यानवी जब ध्यान करने लगे तव शुद्धोपयोगमें लीन | होय, जब जिस जीवके श्रेणीका प्रारंभ होय सो सातिशय अप्रमत्त होय, अधःकरणपरिणाममें तिष्ठे, समयसमय अनंतगुणी विशुद्धताकरि वर्द्धमान होय, बहुरि विशुद्धता वधतें बधतै अपूर्वकरणपरिणाम होय, तव आठमा गुणस्थान नाम पावै । बहुरि अनिवृत्तिकरणपरिणाम होय तब नवमां अनिवृत्तिवादरसांपराय गुणस्थान' नाम पावै । वहुरि कपाय घटते घटते सूक्ष्मरूप होय जाय, तब सूक्ष्मसांपराय दशमां गुणस्थान नाम पावै । बहुरि समस्तकपायनिका उपशम होय जाय, तव उपशांतमोह ग्यारहमां गुणस्थान नाम पावै । इहां यथाख्यातसंयम होय है । बहुरि समस्त मोहकर्मका सत्तामैसं. नाश होय जाय तब क्षीणमोह नाम पावै । ऐसें ये श्रेणीके गुणस्थान हैं । इनमें शुक्लध्यानकी प्रवृत्ति है ॥ , बारमांकी आदितांई तो पहला पाया प्रवर्ते है । बहुरि वारमा गुणस्थानकै अंत एकत्ववितर्कवीचार ध्यान होय है ।। । अनंतरही घातिकर्मका नाश कार केवलज्ञान उपजावै है । इन श्रेणीका गुणस्थाननिका काल अंतर्मुहूर्तका है । क्षपक श्रेणी चढनेवाला अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान उपजावै है । उपशमश्रेणी चढनेवाला उलटा नीचा उतार जाय है । वहरि केवलज्ञान उपजे तव जेर्ते योगनिकी प्रवृत्ति रहै तेते तो सयोगकेवली नाम तेरह गुणस्थान है । याका काल उत्कृष्टि आठ वर्ष घाटि कोटिपूर्वका है । बहुरि जव योगनिकी प्रवृत्ति मिटै तब अयोगकेवली चौदहमा गुणस्थान नाम पावें हैं। याकी स्थिति पंच लघु अक्षरका उच्चारणमात्र काल है । एते कालमें अघातिकमकी सत्तामें प्रकृति रही थी, तिनका क्षयकरि ताव

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