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सर्वार्थ
सिद्धि टीका अ. ८
स्त्यानगृद्धि है । इहां स्त्यायति धातुका अनेक अर्थ हैं, तिनमैंसूं सोवनेका अर्थ ग्रहण किया है । बहुरि गृद्धिधातुका भी दीप्ति अर्थ ग्रहण है, तातैं सोवते भी जो आत्मा पराक्रमरूप दिपै ऐसा अर्थ भया । जाके उदयतें आत्मा बहुत रौद्रकर्म करै सो स्त्यानगृद्धि है । इन निद्रादिकरि दर्शनावरणकर्म समानाधिकरणकार संबंध करना, इनका आधार दर्शनावरणही है । तातें निद्रादर्शनावरण, निद्रानिद्रादर्शनावरण इत्यादि कहना ||
इहां कोई पूछें, जो, निद्रा तौ पापप्रकृति है अर सोवनेतें प्राणीनिकें सुख दीखे है, सो कैसें है ? ताका समाधान, जो, निद्रा आवै है सो तौ पापहीका उदय है । जातें दर्शन ज्ञान वीर्य आत्माका स्वभाव है ताका घात होय है । बहुरि सोवने खेद ग्लानि मिटै भी है, सो याके लगता सातावेदनीयका उदय है । तथा असाताका उदय मंद पडै है ताकूं यह निद्रा सहकारी मात्र होय है । तार्तें यह प्राणी सुख भी मान है । परमार्थतें कछु सुख है नाहीं । वहुरी दर्शनावरणके उदयमें चक्षु अचक्षुके उदय तौ चक्षु आदि इन्द्रियनिकरि अवलोकन नाहीं होय है । एकेन्द्रिय विकलत्रय होय तब तो इंद्रियही घाटि होय । बहुरि जाकै नेत्र होय तौ बिगडी जाय बहुरि अवधिकेवलदर्शनावरणके उदयतें ते दोऊ दर्शन प्रगट न होय । बहुरि निद्राके उदय अंधकार अवस्था है । निद्रानिद्राके उदय महा अंधारा है । प्रचलाके उदयतें बैठाही घूमे नेत्र चलै, गात्र चलें, देखताही न देखे । प्रचलाप्रचलाके उदय अत्यंत घूमै, ऊँबै, कोई शरीर में शलाका आदि चुभावै तौ चेत न होय । स्त्यानगृद्धिका स्वरूप पहला कह्याही था ॥
आगें, तीसरी प्रकृति जो वेदनीय ताकी उत्तरप्रकृतिके भेद कहनेकूं सूत्र कहै हैं-
॥ सदसद्वेद्ये ॥ ८ ॥
याका अर्थ - वेदनीयकी साता असाता ए दोय प्रकृति हैं । तहां जाके उदयतें देवादिगतिनिविर्षे शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी सुखकी प्राप्ति होय सो सातावेदनीय है । सत् कहिये प्रशस्त सराहने योग्य जहां वेदने योग्य होय सो सद्वेय कहिये । बहुरि जाका फल नरक आदि गतिविपैं अनेकप्रकार दुःख होय, सो असातावेदनीय है । असत् कहिये अप्रशस्त वेदने योग्य होय सो असद्वेय है ॥
आगें चौथा मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतिके भेदके कहनेकूं सूत्र कहें हैं
वथ
निका
पान
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