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सिद्धि
सो ऐसें तौ आत्मा भी चेतनाविना जडही ठहरेगा। बहुरि ज्ञानस्वभावही मानेगा तौ तेरी प्रतिज्ञाकी हानि आवैगी। तातें हम कहै हैं सो युक्त है । ज्ञानकू प्रमाण कहतें फलका अभाव है । यह दोप नाही आवै है । कथंचिद्भेदाभेदरूप याका फल भी है। प्रथम तौ अर्थका यथार्थज्ञान होय तब तिस अर्थकवि प्रीति उपजै है । कर्मकार मैला जो यह
आत्मा ताकै इंद्रियनिके आलंबनते अर्थका ज्ञान होय । ताविर्षे उपादेय जानि प्रीति उपजै हैं । सो यह प्रीति वा प्रमा- : सर्वार्थ
10वच२. णका फल है । बहुरि यथार्थज्ञान होय तब रागद्वेष के अभावते मध्यस्थभाव होय सो दूसरा यह फल है । बहुरि पहलै निका का, अर्थका अज्ञान था ताका नाश भया सो तीसरा यह फल है । ऐसें हमारे प्रमाण फलरहित नाही है ॥ अ. १२ अब या प्रमाणशब्दका अर्थ कहै हैं । ' प्रमीयते अनेन । कहिये याकरि वस्तु प्रमाण करिये ऐसें तौ करणसाधन
भया । बहुरि 'प्रमिणोति' कहिये जो वस्तुकू प्रमाण करनेवाला, सो प्रमाण है, ऐसे कर्नूसाधन भया । बहुरि 'प्रमितिमात्र' कहिये वस्तुका प्रमाण करना सो भावसाधन भया । याको क्रियासाधन भी कहिये । इहां कोई पूछे, इस प्रमाणकरि कहा प्रमाण करिये! ताकू कहिये, जीवादिक पदार्थ प्रमाण करिये । फेरि पूछे, जो, जीवादिकका अधिगम तौ प्रमाणकरि करिये । बहुरि प्रमाणका अधिगम काहेकरि करिये ? जो अन्य प्रमाण कल्पिये तो अनवस्था दूपण आवै है। तहां कहिये अनवस्था न आवैगी । जैसे घटादिक प्रकाशनेवि दीपक कारण है; तैसे अपने स्वरूपके प्रकाशनेवि भी वेही दीपक कारण है । अन्य प्रकाश नाही हेरिये है; तैसे प्रमाण भी स्वपरप्रकाशक अवश्य माननां । प्रमेयकी ज्यों प्रमाणकै अन्यप्रमाणकी कल्पना कीजै तो स्वरूपका जाननेका प्रमाणकै अभाव होय, तब स्मरणका भी अभाव होय है। बहुरि स्मरणका अभाव मानिये तो व्यवहारका लोप होय है । तातें स्वपरप्रकाशक प्रमाण मानना योग्य है । बहुरि इहां प्रमाणे ऐसा प्रथमाविभक्तीका द्विवचन कह्या है । सो एक तीन आदि प्रमाणकी संख्या अन्यवादी मान है ताके निषेधकै अर्थि है ।
तथा आगै दोय संख्याका सूत्र भी कहसी ताके जनावने आर्थि है । अन्यवादी चार्वाक तौ एक प्रत्यक्ष प्रमाणही मान १ है । बहुरि बौद्ध प्रत्यक्ष अनुमान ये दोय प्रमाण मान है । बहुरि नैयायिक वैशेषिक सांख्य हैं ते प्रत्यक्ष अनुमान
आगम उपमान ऐसे च्यारि प्रमाण मान है । बहार मीमांसक च्यारि तौ ए अरु अर्थापत्ति अभाव ऐसे छह प्रमाण
मान है । सो प्रत्यक्ष परोक्ष ए दोय संख्या कहनेते सर्वप्रमाण इनिमैं गर्भित होय हैं। 5 ऐसे ए पंचज्ञान प्रमाण कहे । तहां सम्यक् अधिकार सम्यग्ज्ञान है । मिथ्याज्ञान प्रमाण नाही । इहां प्रश्न जो, १ ऐसा कह्या है “ यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता ॥” याका अर्थ; जहां जिसप्रकार विसंवाद न आवै तहां तैसे
प्रमाणता । सौ काहूकै विपर्ययज्ञान है तहां ताकै बाधा विसंवाद न आवै तेते प्रमाण ठहय । तथा काहूकै कालांतरमैं