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15 तौ तहां मुक्तजीववत् कर्मका ग्रहण भी न होय, तब नवीन शरीर काहे• धारै । तातें गमन भी करै है अरु अंतरालमैं | | कार्मणयोग भी है । यह निश्चय है। ___आर्गे, देशांतरमैं गमन करता जे जीवपुद्गल तिनिकै गमन श्रेणीबंध सीधा होय है कि जैसे तैसें ऐसे
का पूछे सूत्र कहै हैं
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टीका
॥ अनुश्रेणि गतिः॥ २६ ॥
पान __ याका अर्थ- जीवनिका तथा पुद्गलनिका गमन आकाशके श्रेणीबंध प्रदेशनिविही होय है, विदिशारूप न होय है। लोकके मध्यतें लगाय ऊर्ध्व अधः तिर्यक् आकाशके प्रदेशनिका अनुक्रम” पंक्तिरूप अवस्थान तावू श्रेणी कहिये । इहांला अनुशब्द श्रेणीके अनुक्रमकू कहै हैं । जीवकी तथा पुद्गलनिकी गति सीधी होय है ऐसा अर्थ है । इहां कोई पूछे है, जीवका तो अधिकार है, इहां पुद्गलका ग्रहण कैसे किया ? ताका उत्तर, जो, इहां गमनका ग्रहण है सो गमन जीवकै भी है पुद्गलकै भी है । तातें दोऊका ग्रहण करना । जो जीवनिहीकै गति मानिये तो गतिग्रहण अनर्थक होय जातें गतिका अधिकार हैही । बहुरि उत्तरसूत्रवि जीवका ग्रहण है ताते इहा पुद्गलकी भी प्रतीति होय है । बहुरि कोई पूछे है, चंद्रमा आदि ज्योतिपी देवनिकै मेरूकी प्रदक्षिणाके कालविर्षे तथा विद्याधरादिककै विनाश्रेणी भी गमन है । ऐसें कैसे कह्या ? जो, श्रेणीबंधही गमन है। ताका उत्तर- इहां कालका तथा क्षेत्रका नियमकरि कह्या है । तहा जीवनिकै मरणका
कालमै अन्यभवकू गमन हो है । तथा मुक्तजीवनिकै ऊर्ध्व गमन हो है तिस कालमें श्रेणीरूपही गमन हो है । तहां है तो कालनियम है । बहुरि ऊर्ध्वलोकते अधोलोक अधोलोकतें ऊर्ध्वलोक तिर्यक् लोकतें नीचै उपरि गमन करै सो श्रेणी-||
रूपही करै । तथा पुद्गलका परमाणू एक समयमैं चौदा राजू गमन करै सो सीधाही गमन करै है । ऐसे देशका नियम है। बहुरि औरप्रकार गमन है सो नियम नाहीं सीधा भी होय वक्र भी होय ॥
आर्गे तिसहीका विशेष जाननेकै अर्थि सूत्र कहै है ॥
॥ अविग्रहा जीवस्य ॥ २७ ॥ याका अर्थ- मुक्तजीवकी गति अविग्रहा कहिये वक्रताकरि रहित है। श्रेणीबंध गति कार एक समयवि सिद्धक्षेत्रवि जाय तिष्ठै है ॥ विग्रहनाम व्याघातका है । ताकू कौटिल्य कहिये वक्रता भी कहिये। ऐसा विग्रह जहां नाहीं सो ।