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# आगे, कहे जे पंचप्रकार ज्ञान ते दोय प्रमाणविर्षे गर्भित कीये तथा दोयकी संख्या अन्य प्रकार भी आवै है। । तातै ताकी निवृत्तीकै आर्थि सूत्र कहै हैं ॥
॥ आये परोक्षम् ॥ ११ ॥ याका अर्थ- पांच ज्ञाननिवि आद्यके दोय मतिश्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण है । आदि शब्द हैं सो प्रथमका वचन है । जाते आदिवि होय ताको आद्य कहिये । इहां कोई पूछ ' आये। ऐसा द्विवचन है तहां मतिश्रुत दोय आये । तहां आदि तो एक मति है । दूसरा श्रुतकै आदिपणां कैसे आवै ? ताका उत्तर-- जो मुख्य उपचारकी कल्पनाते दोऊकै आद्यपनां कह्या है । तहां मतिज्ञान तो मुख्य आदि हैही । बहुरि श्रुत है सो याके समीपही है तातें उपचारतें प्रथम कह्या । सूत्रवि द्विवचन है ताकी सामर्थ्यते गौणका भी ग्रहण हुवा । याका समास ऐसे हो है । ' आद्यं च आद्यं च आये मतिश्रुते, ऐसें जाननां । ये दोऊही परोक्षप्रमाण है ऐसा संबंध करनां । इहां कोई पूछे इनिकै परोक्षपणां काहेते है ? ताका उत्तर- ए दोऊही ज्ञान परकी अपेक्षा लिये है। मतिज्ञान तौ इंद्रियमनतें होय है। श्रुतज्ञान मनतें होय है । सो यह सूत्र आगें कहसी । यातें पर जे इंद्रिय मन तथा प्रकाश उपदेशादि जे वाह्यनिमिति तिनिकी | अपेक्षा सहाय लेकरि मतिश्रुतज्ञानावरणीयका क्षयोपशमसहित आत्माकै उपजै है । तातै परोक्ष कहिये । याहीतै उपमानादिक प्रमाण भी ऐसही उपजै है ते भी याहीमें गर्भित होय हैं। अथवा परोक्ष शब्दका ऐसा भी अर्थ है; जो अक्ष कहिये इंद्रिय तिनितें दूरवर्ती होय ताकू परोक्ष कहिये सो श्रुतज्ञान । तथा स्मरण प्रत्यभिज्ञान तर्क स्वार्थानुमान ए भी इंद्रियनितें दूरवर्ती है । ऐसें ए मतिज्ञानमैं गर्भित हैं । तातें ए भी परोक्षही हैं । बहुरि अवग्रह ईहा अवाय धारणाज्ञान जे मतिज्ञानके भेद हैं ते इंद्रियनितें भिडिकरि होय है । तो भी अक्ष कहिये आत्मा तातें दूरवर्ती हैं। ताते इनिळू व्यवहारकरि तो प्रत्यक्ष कहै हैं । परंतु परमार्थतें परोक्षही है ॥ बहुरि केई कहै है, परोक्षज्ञान तौ अस्पष्ट जाननां है । सो पदार्थके आलंवनरहित है । तातें मनोराज्यादिककी ज्यो निरर्थक है । ते विना समझ्या कहै है । जातें अर्थका आलंबन तो प्रत्यक्ष परोक्ष दोऊनिविही है । परंतु स्पष्टता अस्पष्टताका कारण नाहीं । प्रत्यक्ष परोक्ष भेद ऐसें
है जहां अन्यका अंतर पडे नाही । तथा अन्यका सहायविना विशेषनिसहित पदार्थनिळू जाने सो तो स्पष्ट है । बहुरि ६ वीचिमैं अन्यका अंतर पडै तथा सहाय चाहै । तथा विशेपनिसहित पदार्थनिळू न जानै सो अस्पष्ट कहिये । मनोराज्याa दिकवत् तो जाकू कहिये जाका कछु साक्षात् तथा परंपराय विपयही न होय ऐसें जाननां ॥