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सर्वार्थ
निका
टीका
जातें सामान्य पदार्थको सादृश्य दिखावनेरूप है। बहुरि संभव, अर्थापत्ति, अभाव ए स्वार्थानुमानके प्रकार हैं । जातें ये सर्व लिंगहीत जानिये हैं । इहां कोई कहै स्मृति तौ अप्रमाण है सो प्रमाणवि कैसै अंतर्भूत होयगी ? ताकू कहिये, जो,
स्मृति अप्रमाण होय तो प्रत्यभिज्ञान न होय तब व्याप्तिका भी ग्रहण न होय । तव अनुमान काहेते होय ? अरु अनु
BI मान न होय तब प्रत्यक्षकै भी प्रमाणता न ठहरै । तब सर्वशून्यता आवै । तातें स्मृतिप्रमाण मानेही अन्यप्रमाण सिद्ध सिद्धि
होय है । बहुरि स्मृतिकी ज्यों अपने विषयवि प्रत्यभिज्ञान भी वाधारहित है। अतीतवस्तुका यादि करनां जो स्मरण । सो याका कारण है । सो अतीतर्फे यादिकरि वर्तमानमें तिसही वस्तूकू देखि बहुरि अतीत वर्तमानकी एकता जोडरूपकूही पान
जाननां तथा अतीत सारिखी वस्तु देखि दोऊके समानताका जाननां सो प्रत्यभिज्ञान है सो. सत्यार्थ है। जैसें मैं बालक था सोही मै अब युवा हूं बूढा हूं इत्यादि । तथा पहलै घट देख्या था तैसाही यह दूसरा घट है इत्यादि । याके भेद बहुत हैं सो प्रमाणशास्त्रतें जानने ।
बहुरि साध्यसाधनके अविनाभावसंबंधरूप जो व्याप्ति, ताका जाननां सो तर्क है । सो भी प्रमाण है । सो यहु अप्रमाण होय तौ अनुमान भी प्रमाण न ठहरै । बहुरि अनुमानादिकमैं यहु गर्भित होय नाही। तातें न्याराही प्रमाता जाननां । याका उदाहरण- जैसै धूम अग्निका संबंध देखिकरि ऐसा निश्चय किया; जो, जहां जहां धूम है तहां तहां नियमकरि अग्नि है। ऐसे निश्चय करनेका नाम तर्क है । सो सत्यार्थ है, तातें प्रमाण है । जो यहु ज्ञान अप्रमाण होय तो अनुमान प्रमाण कैसें ठहरै ? बहुरि साधन कहिये लिंग-चिन्ह, तातें साध्य कहिये जानने योग्य वस्तु लिंगी चिन्हवान्, ताका निश्चय करनां सो स्वार्थानुमान है। तहां साधन ता• कहिये, जाकी जहा साध्यवस्तु न होय, तहां प्राप्ति न होय । तथा जहां साधन होय तहां साध्य होयही होय ॥
बहुरि साध्यके तीन विशेपण हैं, शक्य, अभिप्रेत, अप्रसिद्ध । तहां जो साधनेकी योग्यता लीये होय सोही साध्य ।। जामै योग्यता नाही सो साध्य नाही, जैसै आकाशकै फूल । बहुरि जो साधनेवाला पुरुप अभिप्रायमैं ले, सोही साध्य, तिसविना जगत्में अनेक वस्तु हैं ते वाकै साध्य नांही । बहुरि पहलै सिद्ध न हूवा होय, सो साध्य । सिद्ध भये फेरी साधना अफल है । ऐसै साध्यके सन्मुख जो पूर्वोक्त साधनकरि नियमरूप ज्ञान होय, ताते याकू अभिनिबोध भी कहिये । इहां कोई कहै; शास्त्रमैं मतिज्ञानसामान्यका नाम अभिनिवोध कह्या है; तुम स्वार्थानुमानकू अभिनिबोध कैसे कह्या ? ताका उत्तर-जो, सामान्यार्थकी विशेषवि प्रवृत्ति हौतें विरोध नाही । जो अवग्रहादि अनेकभेदरूप मतिज्ञान कहिये तदि तो सामान्यक्रू अभिनिबोध कहिये । बहुरि जव विशेप लीजिये तव स्वार्थानुमान भी कहिये। तहां साधनके