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जवि०
हुवा तेम ॥ इर्ष ॥ ८ ॥ परिजन जीमाइ हो स्थापे नामने । गुण निष्पन्न 'न्यायसेण ॥ चंपकलता हो सुक्ल शशी परे । वृद्धि होवे हर्षे सेण ॥ इर्ष ॥ ६ ॥ विज्ञावय में | हो पढाइ सवी कला। धर्म ज्ञान सत्संग ॥ प्रवीन भया सो हो स्वल्प ही कालमें ।
करे क्रिडा उछरंग ॥ इर्ष ॥ १०॥ जय विजयने हो साथ रमे सदा । लघु जाणी ते धरे प्रेम ॥ परन्तु पुण्याई हो जुदी २ नरतणी । पावे उतनो ही खेम ॥ इर्ष ॥११॥ जय विजय का हो पुण्य प्रवल अति । ते लगे दास समान ॥ देखी श्रिमति हो
चित्त में प्रज्वले । आर्त रौद्र ध्यावे ध्यान ॥ इर्ष ॥ १२ ॥ राजाधिपती हो होसी IN दोनों बन्धुवा । मुझ पुत्र जन्म दुःख पाय ॥ कोइ उपावे हो हणावू दोनों भणी।
तो मुझ पुत्र सुखी थाय ॥ इर्ष ॥ १३॥ छल छिद्र बहु विष हो देखे दोइका करे । केइ मारण उपाव ॥ पुण्य बली जेह छेहो जय विजय घणा । लागे नहीं एकी
दाव ॥ इर्ष ॥ १४ ॥ चिन्तातुरी हो हुई श्रीमति घणी । अन्नोदक नहीं भाय ॥ निद्रा रीशाणी हो खिशाणी सदा रहे । नयने नीर वहाय ॥ इर्ष ॥ १५ ॥ एकदा ।