________________
ज०वि०
सदा रहे सुख नीलो । सोचो जगजन देख ॥ इर्ष ॥ १ ॥ श्रीमति नामे हो राणी तीसरी । दुर्मति वति सदाय ॥ इर्ष ॥ रूपे सोहामणी हो गुण अलखामणी । कपट दपट में रमाय ॥ इर्ष ॥ २ ॥ निज २ संचित हो पुण्य प्रमाण से । सुख, यश, धन जन पाय ॥ ३० ॥ मूर्ख सिदावे हो देखी सुख पारके । पुण्य विना कैसे सोथाय ॥ ३० ॥ ३ ॥ एकदिन सूती हो सुखे निज सेज में | स्वप्न लियो सुखदाय । शभा भराणी हीराणीति विषे । विषम नीवेड्योजी न्याय ॥ इर्ष ॥ ४ ॥ यों देख हर्षि हो जागी तत्क्षिण | प्रीतम पास जो आय । मधुर वचन से हो नृप को जगाविया । स्वप्न विरतंत जणाय ॥ इर्ष ॥ ५ ॥ सुणी श्रानन्दि हो राजाजी यों कहे । पुत्र होवे - गा गुणवन्त । न्याय विशारद हो मजलस रंजणों । प्रजा तात महन्त ॥ ईर्ष ॥ ६ ॥ श्रीमति हर्दी होई निजस्थान के । करे गर्भ प्रतिपाल । सुखे २ वीत्या हो माम सवा नौ तदा । जन्म्यों पुण्यवन्त बाल || इर्ष ॥ ७ ॥ जैसे पंक से हो कमलज नीपजे । मृतिका से जैसे हेम ॥ चार समुद्र में हो मुक्ताफल हुवे । ए पुण्यात्म