________________ // श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः // श्री विजयप्रेमसूरीश्वरेभ्यो नमः श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरि विरचित जसम्मतिप्रकरण श्री अभयदेवमूरिविरचित व्याख्या * तत्त्वबोधविधायिनी * . (हिन्दी विवेचन सहित) प्रथमः काण्डः [पुरोवचन ] ओं अर्ह नमः / विक्रमीय संवत्सर प्रवर्तक दानवीर सम्राट राजा विक्रमादित्य के प्रतिबोधक समर्थ तार्किक युगपुरुष श्री सिद्धसेन दिवाकर महाराज ने जैनदर्शन के 'श्री सम्मतितकंप्रकरण' नाम के अलौकिक शास्त्र की रचना की। इस शास्त्र में विश्व में अन्यत्र अप्राप्य विशिष्ट तत्त्व-सिद्धान्तरूप अनेकान्तवाद-नयवाद• ज्ञानस्वरूप इत्यादि का युक्तिपूर्ण निरूपण किया गया है। यह शास्त्र समझने में अतिशय गहरा होने से एवं शास्त्र के कथित पदार्थों में गर्भित एकान्तवादी मतों के पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष की तर्कबद्ध विवेचना को खोज निकालना अत्यन्त कठिन होने से तर्कपंचानन श्रीमद् अभयदेवसूरिजी महाराज ने इस सम्मति नाम के प्रकरण पर तत्त्वबोधविधायिनी नाम की विशद व्याख्या का निर्माण किया है। मूल ग्रन्थ एवं व्याख्या ग्रन्थ समझने में कठिन होने से यहाँ इन दोनों का संक्षिप्त हिन्दी विवेचन किया जाता है। 'तत्त्वबोधविधायिनी' नाम की इस व्याख्या के मंगलाचरण में व्याख्याकार यह कहते हैं [ व्याख्याकार मंगलाचरण ] स्फुरद्वागंशुविध्वस्तमोहान्धतमसोदयम् / वर्धमानार्कमभ्ययं यते सम्मतिवृत्तये // 1 // ___ अर्थः-- चमकते हये वाणी के किरणों द्वारा जिन्होंने मोहरूप अन्धकार के उदय का विध्वंस कर दिया है, ऐसे वर्धमानस्वामी रूप सूर्य की पूजा कर के मैं 'सम्मति' की व्याख्या के लिये यत्न करता हूँ॥१॥